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प्रस्तावना
यहाँ यह बात ध्यान रखने की है कि प्राचीन सांख्यों ने ईश्वर को नहीं माना है । किन्तु कालान्तर में ईश्वर की सत्ता भी स्वीकार कर ली गई । अत: सांख्य के निरीश्वर सांख्य और सेश्वरसांख्य ऐसे दो भेद हो गये । सेश्वरसांख्य को ही योगदर्शन के नाम से कहते हैं । ईश्वर की सत्ता मानकर यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान और समाधियोग के इन आठ अङ्गों के प्रतिपादन करने में ही योगदर्शन की विशेषता है । योगसूत्रों के रचयिता महर्षि पतञ्जलि योगदर्शन के प्रवर्तक कहे जाते
_ कपिल मुनि सांख्य दर्शन के प्रवर्तक माने जाते हैं । उन्होंने सांख्यसूत्रों की रचना की है । उनके अनुसार मूल तत्त्व दो हैं-प्रकृति और पुरुष । प्रकृति से सर्वप्रथम बुद्धि उत्पन्न होती है । इसे महत् या महान् कहते हैं । महान् से मैं सुन्दर हूँ, मैं सुखी हूँ', इत्यादि अहङ्कार की उत्पत्ति होती है । अहङ्कार से चक्षु, घ्राण, रसना, त्वक् और श्रोत्र-ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ; वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन, और शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँच तन्मात्रायें, इस प्रकार कुल सोलह तत्त्वों की उत्पत्ति होती है । पुनः पाँच तन्मात्राओं से पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश-इन पाँच महाभूतों की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार प्रकृति से सब मिलाकर २३ तत्त्वों की उत्पत्ति होती है । इनमें से प्रकृति कारण ही है, कार्य नहीं । महान्, अहङ्कार और पाँच तन्मात्रायें ये सात तत्त्व कार्य और कारण दोनों हैं । शेष सोलह तत्त्व ( ग्यारह इन्द्रियाँ
और पाँच महाभूत ) केवल कार्य हैं, कारण नहीं । पुरुष न तो किसी का कारण है और न किसी का कार्य है।
सांख्यों का मत है कि प्रकृति त्रिगुणात्मक है तथा सब पदार्थों में सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों का अन्वय देखा जाता है, इसलिए सब पदार्थ प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं । सांख्य किसी पदार्थ की उत्पत्ति और नाश को नहीं मानते हैं, किन्तु आविर्भाव और तिरोभाव मानते हैं । उत्पन्न पदार्थ उत्पत्ति के पहले ही कारण में अव्यक्तरूपसे विद्यमान रहता है और कारण उसे केवल व्यक्त कर देता है । जैसे अन्धकार में पहले से स्थित घटादि पदार्थों को दीपक व्यक्त कर देता है । घट उत्पत्ति के पहले मिट्टी में छिपा