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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . .
वात्स्यायन, प्रशस्तपाद, शङ्कर, रामानुज, वाचस्पति, धर्मकीर्ति, अकलंक, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र आदि आचार्य इसी युग में उत्पन्न हुए हैं । यह वृत्तिकाल विक्रम संवत् ३०० से विक्रम संवत् १५०० तक माना जाता है ।
वैदिक दर्शनों में सांख्यदर्शन सबसे प्राचीन माना जाता है । उसके बाद अन्य दर्शनों की क्रमशः उत्पत्ति और विकास हुआ है । अवैदिक दर्शनों में चार्वाक दर्शन सबसे प्राचीन माना जाता है । वैदिक दर्शन की परम्परा में परिस्थितिवश उत्पन्न हुई बुराइयों को दूर करने के लिए ईसा पूर्व छठी शताब्दी में महात्मा बुद्ध के जन्म के बाद बौद्धदर्शन का आविर्भाव हुआ । जैनदर्शन की मान्यतानुसार जैन दर्शन की परम्परा अनादिकाल से प्रवाहित होती चली आ रही है । इस युग में आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थंकरों ने कालक्रम से जैनधर्म और जैनदर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलंक, विद्यानन्द, हरिभद्र, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने जैनदर्शन के विकास में महत्त्वपूर्ण योग दिया है । कुछ लोग जैनदर्शन और बौद्धदर्शन को वैदिकदर्शन की शाखा के रूप में स्वीकार करते हैं, किन्तु उनकी ऐसी मान्यता ठीक नहीं है । क्योंकि ऐतिहासिक खोजों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि श्रमण-परम्परा के अनुयायी उक्त दोनों धर्मों और दर्शनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है । पाठकों तथा जिज्ञासुओं की जानकारी के लिए यहाँ संक्षेप में भारतीय दर्शनों के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन किया जा रहा है । सांख्य तथा योगदर्शन
ऐसा कहा जाता है कि तत्त्वों की संख्या ( गिनती ) के कारण इस दर्शन का नाम सांख्यदर्शन ' हुआ । किन्तु संख्या शब्द का दूसरा भी अर्थ है-विवेकज्ञान । इस दर्शन में प्रकृति और पुरुष के विवेकज्ञान पर विशेष बल दिया गया है । इसलिए इसे सांख्य कहते हैं । इस अर्थ में सांख्य शब्द का प्रयोग अधिक युक्तिसंगत है । सांख्य द्वैतवादी दर्शन है, क्योंकि यह प्रकृति और पुरुष-इन दो तत्त्वों को मौलिक मानता है । प्रकृति से महत् (ज्ञान) आदि २३ तत्त्वों की उत्पत्ति होती है । अत: सांख्यदर्शन में सब मिलाकर २५ तत्त्व माने गये हैं । सांख्यों ने प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमइन तीन प्रमाणों को माना है ।