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प्रस्तावना
का वास्तविक प्रारम्भ होता है । परन्तु आचार्य अकलंकदेवने जैनन्याय को व्यवस्थितरूप से प्रतिष्ठापित किया है । अतः अकलंकदेव जैनन्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य माने गये हैं । आचार्य अकलंकदेव के बाद आचार्य विद्यानन्द ने जैनन्याय के सिद्धान्तों का विस्तृत विवेचन किया है । इसके बाद आचार्य माणिक्यनन्दि ने परीक्षामुख की रचना करके जैनन्याय के सिद्धान्तों को सूत्रबद्ध किया है । आचार्य माणिक्यनन्दि के बाद प्रभाचन्द्र, अनन्तवीर्य, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने पूर्वाचार्यों का अनुसरण करते हुए न्याय के सिद्धान्तों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है । भारतीय दर्शनों का श्रेणी विभाजन
भारतीय दर्शनों को आस्तिक और नास्तिक के भेद से दो भागों में विभक्त किया जाता है । न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त-इन छह दर्शनों को आस्तिक तथा जैन, बौद्ध और चार्वाक दर्शन को नास्तिक कहा जाता है । किन्तु भारतीय दर्शनों को आस्तिक और नास्तिक-इन दो विभागों में विभक्त करने वाला कोई सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं है । अतः भारतीय दर्शनों का विभाग वैदिक और अवैदिक दर्शनों के रूप में करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है । वेद को प्रमाण मानने के कारण न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त-ये छह वैदिक दर्शन हैं तथा वेद को प्रमाण न मानने के कारण चार्वाक, बौद्ध और जैन-ये तीन अवैदिक दर्शन हैं। भारतीय दर्शनों का क्रमिक विकास
भारतीय दर्शनों को हम दो कालों में विभाजित कर सकते हैंसूत्रकाल और वृत्तिकाल । सूत्रकाल में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा तथा वेदान्त दर्शनों के सूत्रों की रचना हुई । सूत्रों की रचना से यह तात्पर्य नहीं है कि उसी समय से उस दर्शन का प्रारम्भ होता है, किन्तु ये सूत्र अनेक शताब्दियों के चिन्तन और मनन के फलस्वरूप निष्पन्न हुए हैं । इन सूत्रों का रचनाकाल ४०० विक्रमपूर्व से २०० विक्रमपूर्व तक स्वीकार किया जाता है । सूत्र संक्षिप्त एवं गूढार्थ वाले होते हैं । अतः उनके अर्थ को सरलतापूर्वक समझने के लिए भाष्य, वार्तिक तथा टीका ग्रन्थों की रचना हुई । यह काल वृत्तिकाल कहलाता है । शबर, कुमारिल,