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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
वस्तु को विभिन्न ऋषियों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से देखा और तदनुसार ही उसका प्रतिपादन किया । अतः यदि हम दर्शन शब्द के अर्थ को भावनात्मक साक्षात्कार के रूप में ग्रहण करें तो उपर्युक्त प्रश्न का समाधान हो सकता है । दर्शन का प्रयोजन
समस्त भारतीय दर्शनों का प्रयोजन इस संसार के समस्त दु:खों से छुटकारा पाना अर्थात् मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करना है । इस संसार के सभी प्राणी आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक-इन तीन प्रकार के दुःखों से पीड़ित हैं । अतः इन दुःखों से निवृत्ति का उपाय बतलाना दर्शनशास्त्र का प्रधान लक्ष्य है । इसलिए दर्शनशास्त्र दुःख, दु:ख के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का प्रतिपादन करता है । जिस प्रकार . चिकित्साशास्त्र में रोग, रोगनिदान, आरोग्य और औषधि-इन चार तत्त्वों का प्रतिपादन आवश्यक होता है, उसी प्रकार दर्शनशास्त्र में भी दुःख, दुःख के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारणों का प्रतिपादन करना आवश्यक है । न्याय की परिभाषा
जिस उपाय के द्वारा वस्तुतत्त्व का ज्ञान किया जाता है उसे न्याय कहते है । तत्त्वार्थसूत्र के 'प्रमाणनयैरधिगमः' ( १/६ ) इस सूत्र में जैनन्याय के बीज विद्यमान हैं. । हम जीवादि तत्त्वों का ज्ञान प्रमाण और नय के द्वारा करते हैं । इसीलिए न्यायदीपिका में प्रमाणनयात्मको न्यायः' इस वाक्य के द्वारा न्याय को प्रमाण और नयरूप कहा गया है । न्यायदर्शन में 'प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः' ( न्या० सू० १/१/१ ) इस सूत्र के द्वारा यह बतलाया गया है कि प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा करना न्याय कहलाता है । प्रत्येक दर्शन ने एक, दो, तीन आदि प्रमाणों को माना है और अपनेअपने मतानुसार उन प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा की है । किसी विषय में विरुद्ध नाना युक्तियों की प्रबलता और दुर्बलता का निश्चय करने के लिए जो विचार किया जाता है वह परीक्षा कहलाता है । आचार्य उमास्वामी ने सम्यग्ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल-इन पाँच भेदों को बतलाकर 'तत्प्रमाणे' ( त० सू० १/११ ) इस सूत्र के द्वारा सम्यग्ज्ञान में प्रमाणता का उल्लेख किया है । तदनन्तर आचार्य समन्तभद्र से जैनन्याय