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प्रस्तावना
- आचार्य प्रभाचन्द्र द्वारा विरचित प्रमेयकमलमार्तण्ड जैनदर्शन और जैनन्याय विषयक एक उच्चकोटि का ग्रन्थ है, जिसमें जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में अन्य समस्त भारतीय दर्शनों के प्रमुख सिद्धान्तों पर विचारविमर्श किया गया है । अतः यहाँ सर्वप्रथम यह जान लेना आवश्यक है कि दर्शन और न्याय की परिभाषा क्या है । दर्शन की परिभाषा
मनुष्य विचारशील प्राणी है । वह प्रत्येक कार्य के समय अपनी विचारशक्ति का उपयोग करता है । इसी विचारशक्ति को विवेक कहते हैं । अतः मनुष्य में जो स्वाभाविक विचारशक्ति है उसी का नाम दर्शन है । 'दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप देखा जाता है वह दर्शन कहलाता है । अर्थात् यह संसार नित्य है या अनित्य ? इसकी सृष्टि करने वाला कोई है या नहीं ? आत्मा का स्वरूप क्या है ? इसका पुनर्जन्म होता है या नहीं ? ईश्वर की सत्ता है या नहीं ? इत्यादि प्रश्नों का समुचित उत्तर देना दर्शनशास्त्र का काम है । दर्शनशास्त्र वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करने के कारण वस्तुपरतन्त्र है । सत् की व्याख्या करने में भारतीय दार्शनिकों ने विषय की ओर उतना ध्यान नहीं दिया जितना विषयी ( आत्मा ) की ओर । आत्मा को अनात्मा से पृथक् करना दार्शनिकों का प्रधान कार्य रहा है । इसीलिए आत्मा को जानो ( आत्मानं विद्धि ) यह भारतीय दर्शनों का मूल मन्त्र है । यही कारण है कि प्रायः समस्त भारतीय दर्शन आत्मा की सत्ता पर प्रतिष्ठित हैं । भारत में धर्म तथा दर्शन में प्रारम्भ से ही घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है । दर्शनशास्त्र के सुचिन्तित आध्यात्मिक तथ्यों के ऊपर ही भारतीय धर्म की दृढ़ प्रतिष्ठा है । ..इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्राचीन ऋषि-महार्षियों ने
अपनी तात्त्विक दृष्टि से जिन-जिन तथ्यों का साक्षात्कार किया उनको 'दर्शन' शब्द के द्वारा कहा गया । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि यदि दर्शन का अर्थ साक्षात्कार है तो फिर विभिन्न दर्शनों में पारस्परिक भेद का कारण क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर यही हो सकता है कि अनन्तधर्मात्मक