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________________ १६४ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन .. है तो वेश्या के घर में प्रविष्ट ब्राह्मण नारियों में ब्राह्मणत्व का अभाव क्यों माना जाता है तथा उनकी निन्दा क्यों की जाती है । ब्राह्मणत्व जाति तो पवित्रता का हेतु है और नित्य होने से वह पूर्ववत् विद्यमान ही है । यदि ऐसा नहीं है तो ब्राह्मणत्व को गोत्व से भी निकृष्ट मानना पड़ेगा । क्योंकि चाण्डाल के घर में प्रविष्ट और चिरकाल तक पोषित गौ आदि का शिष्ट पुरुषों के द्वारा पुनः ग्रहण कर लिया जाता है, किन्तु वेश्या के घर में प्रविष्ट ब्राह्मणियों का पुनः ग्रहण नहीं किया जाता है । यदि आप वेश्या के घर में प्रविष्ट ब्राह्मणी में ब्राह्मण के योग्य क्रिया का भ्रंश हो जाने से ब्राह्मणत्व की निवृत्ति मानते हैं तो व्रात्य में भी क्रिया का भ्रंश पाये जाने के कारण ब्राह्मणत्व की निवृत्ति मानना पड़ेगी । उपनयन आदि संस्कारों से रहित ब्राह्मण को व्रात्य कहते हैं । परन्तु ऐसा नहीं है कि व्रात्य में ब्राह्मणत्व नहीं रहता है । अतः क्रिया का भ्रंश होने पर भी जिस प्रकार व्रात्य में ब्राह्मणत्व का सद्भाव है, उसी प्रकार वेश्या के घर में प्रविष्ट ब्राह्मणी में भी ब्राह्मणत्व का सद्भाव है । और ऐसा मानना ही युक्तिसंगत है। ___यहाँ ब्राह्मणत्व जातिवादियों का कहना है कि ब्राह्मणत्व जाति का अभाव मानने पर जैनों के मत में वर्णाश्रम व्यवस्था और उसके निमित्त से होने वाला तप, जप, दान आदि का व्यवहार कैसे बनेगा ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि जप, तप आदि क्रियाविशेष और यज्ञोपवीत आदि चिह्न से उपलक्षित व्यक्ति विशेष में वर्णाश्रम व्यवस्था और तप, दान आदि का व्यवहार सुगमता से बन जाता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं । ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ये चार आश्रम हैं । प्रत्येक वर्ण और आश्रम के अपने अपने कर्तव्य भी पृथक् पृथक् हैं । जैसे तप करना, दान देना, दान लेना, यज्ञ करना, यज्ञ करवाना इत्यादि ब्राह्मणों का कर्तव्य है । इसी प्रकार क्षत्रिय आदि के भी पृथक् पृथक् कर्तव्य हैं । अतः वर्णाश्रम व्यवस्था और तप, दानादि के व्यवहार का कारण ब्राह्मणत्व जाति नहीं है । यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि जातियों का सद्भाव जन्मना और अनादि माना जाय तो परशुराम के द्वारा समस्त भूमण्डल को इक्कीस बार क्षत्रिय रहित कर देने पर भी क्षत्रियों की पुन उत्पत्ति कैसे संभव हुई ? परशुराम की तरह कोई क्षत्रिय पुरुष इस भूमण्डल को ब्राह्मण रहित भी कर सकता है । तब ब्राह्मणों की उत्पत्ति कैसे संभव होगी ? अतः ऐसा
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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