SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ५ १६३ रहता है तो फिर उससे उत्पन्न प्राणियों में ब्राह्मण, शूद्र आदि का कोई भेद नहीं बन सकेगा । अब यदि ब्रह्मा के मुख प्रदेश में ही ब्राह्मणत्व माना जाय तो दूसरे प्रदेश में वह शूद्रता को प्राप्त होगा । और ऐसी स्थिति में उसके पाद आदि अन्य अवयव शूद्र की तरह वन्दनीय नहीं होंगे, किन्तु विप्रों की उत्पत्ति का स्थान केवल ब्रह्मा का मुख ही वन्दनीय होगा । __ ब्राह्मणत्व जातिवादियों से हम पूछना चाहते हैं कि ब्राह्मणत्व किसमें रहता है-जीव में, शरीर में, संस्कार में अथवा वेदाध्ययन में । जीव में ब्राह्मणत्व मानने से तो क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में भी ब्राह्मणत्व का प्रसंग प्राप्त होगा । शरीर में ब्राह्मणत्व संभव नहीं है । क्योंकि पंचभूतात्मक शरीर में घटादि की तरह ब्राह्मणत्व नहीं हो सकता है । संस्कार में ब्राह्मणत्व मानने में दोष यह है कि यज्ञोपवीत आदि संस्कार तो शूद्र बालक का भी किया जा सकता है । ऐसी स्थिति में संस्कार के बाद शूद्र बालक में भी ब्राह्मणत्व मानना पड़ेगा । वेदाध्ययन करने मात्र से भी कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता है । क्योंकि कोई शूद्र देशान्तर में जाकर वेद का पठन-पाठन कर सकता है । किन्तु इतने मात्र से वह ब्राह्मण नहीं हो जाता है । ब्राह्मणत्वजातिवादी ब्राह्मणत्व को नित्य मानते हैं । फिर भी वे कहते हैं कि जप, तप होम आदि ब्राह्मण के योग्य क्रियाओं के न करने से तथा शूद्र का भोजन करने से ब्राह्मणत्व नष्ट हो जाता है । इस विषय में कहा भी गया है- शूद्रन्नाच्छूद्रसम्पर्काच्छूद्रेण सह भाषणात् । इह जन्मनि शूद्रत्वं मृतः श्वा चाभिजायते ॥ अर्थात् शूद्र द्वारा पकाया गया भोजन करने से, शूद्र के साथ सम्पर्क रखने से और शूद्र के साथ वार्तालाप करने से ब्राह्मण इसी जन्म में शूद्र हो जाता है और मरने के बाद श्वानयोनि में उत्पन्न होता है । इस प्रकार के कथन में कितना विरोधाभास है । ब्राह्मणत्व जाति को नित्य मानना और कुछ कारणों द्वारा उसका नाश भी मानना विरोधाभ्यास नहीं तो और क्या है । ऐसी परस्पर विरुद्ध बातों का कहना बुद्धिमानों को शोभा नहीं देता। ... यह निश्चित है कि ब्राह्मणत्व जाति के सद्भाव में कोई प्रमाण नहीं है । थोड़ी देर के लिए मान लिया जाय कि ब्राह्मणत्व जाति का अस्तित्व
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy