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________________ चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ५ __ १६५ मानना चाहिए कि ब्राह्मणत्व आदि जाति के बिना ही ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि का व्यवहार अपनी अपनी क्रियाविशेष के कारण ही होता है । इसके साथ ही ऐसा भी मानना चाहिए कि सदृशक्रियारूप परिणमन के कारण ही व्यक्तियों में ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व आदि जाति विशेष की व्यवस्था होती है और ऐसा मानना ही तर्कसंगत है । ब्राह्मणत्व जाति के निराकरण के प्रकरण में आचार्य प्रभाचन्द्र के उदार विचारों का परिचय मिलता है । वे जन्मना ब्राह्मणत्व जाति का खण्डन अनेक प्रकार के तर्कों और प्रमाणों के आधार से करते हैं तथा ब्राह्मणत्व जाति को गुण और कर्म के अनुसार मानते हैं । उन्होंने ब्राह्मणत्व जाति के एकत्व और नित्यत्व का निराकरण करके उसे मनुष्यत्व, गोत्व आदि की तरह सदृशपरिणमनरूप ही सिद्ध किया है । वे वर्णाश्रमव्यवस्था और तप, दान आदि के व्यवहार को भी यज्ञ, दानादि क्रियाविशेष और यज्ञोपवीत आदि चिह्न से उपलक्षित व्यक्तिविशेष में ही करने का परामर्श देते हैं। . . क्षणभंगवाद : पूर्वपक्ष___ क्षणभंगवाद बौद्धदर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । इसके अनुसार संसार के समस्त पदार्थ क्षणिक हैं, और वे प्रतिक्षण बदलते रहते हैं । वैसे तो प्रत्येक दर्शन भंग ( नाश ) को मानता है, किन्तु बौद्धदर्शन की विशेषता यह है कि कोई भी वस्तु एक क्षण ही ठहरती है और दूसरे क्षण में वह वह नहीं रहती है, परन्तु दूसरी हो जाती है । अर्थात् वस्तु का प्रत्येक क्षण में स्वाभाविक नाश होता रहता है । सब पदार्थों में क्षणिकत्व की सिद्धि अनुमान के द्वारा इस प्रकार की गई है-सर्वं क्षणिकं सत्त्वात् । अर्थात् सब पदार्थ क्षणिक हैं, सत् होने से । सत् वह कहलाता है जो कुछ अर्थक्रिया ( काम ) करे । अब देखना यह है कि नित्य पदार्थ में अर्थक्रिया हो सकती है या नहीं । बौद्धदर्शन की मान्यता है कि नित्य पदार्थ में अर्थक्रिया हो ही नहीं सकती है । क्योंकि नित्य वस्तु न तो युगपत् ( एक साथ ) अर्थक्रिया कर सकती है और न क्रम से । यदि नित्य वस्तु युगपत् अर्थक्रिया करती है तो संसार के समस्त पदार्थों को एक साथ एक समय में ही उत्पन्न
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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