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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ५
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उत्तरपक्ष-.
ब्राह्मणत्व जातिवादियों का उक्त मत प्रमाणसंगत नहीं है । यह कहना ठीक नहीं है कि ब्राह्मणत्व की प्रतिपत्ति प्रत्यक्ष से होती है । प्रत्यक्ष से ब्राह्मणत्व की सिद्धि करना सर्वथा गलत है । प्रत्यक्ष से ऐसा ज्ञान तो होता है कि यह मनुष्य है, किन्तु ऐसा ज्ञान नहीं होता है कि यह ब्राह्मण है । ब्राह्मण के सिर पर ऐसा कोई चिह्न नहीं होता है जिसे देखकर कोई पहचान सके कि यह ब्राह्मण है ।
जिस प्रकार विभिन्न गायों में सादृश्य लक्षण गोत्व की प्रतीति प्रत्यक्ष से होती है, उस प्रकार देवदत्त आदि में ब्राह्मणत्व की प्रतीति प्रत्यक्ष से नहीं होती है । अन्यथा यह ब्राह्मण है या अन्य है, ऐसा संशय नहीं होना चाहिए । किन्तु ऐसा संशय होता है और इसके निराकरण के लिए गोत्रादि बतलाना पड़ता है । इसके विपरीत यह गाय है अथवा मनुष्य है, ऐसा निश्चय करने के लिए गोत्रादि को बतलाने की अपेक्षा नहीं होती है । इसका तात्पर्य यही है कि ब्राह्मणत्व जाति की प्रतीति प्रत्यक्ष से नहीं होती है । यदि ब्राह्मणत्व जाति के निश्चय के लिए प्रत्यक्ष का कोई सहायक कारण होता है तो वह क्या है ? आकार विशेष या वेदाध्ययनादिक ? आकारविशेष तो ब्राह्मणत्व के निश्चय में सहायक नहीं हो सकता है । क्योंकि उस प्रकार का आकार विशेष अब्राह्मण में भी संभव है । वेदाध्यययन या अन्य कोई क्रियाविशेष भी ब्राह्मणत्व के निश्चय में सहायक नहीं हो सकती है । क्योंकि कोई शूद्र भी देशान्तर में ब्राह्मण बनकर वेदाध्ययन करता हुआ तथा वेद विहित क्रियाविशेष को करता हुआ देखा जाता है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि ब्राह्मणत्व जाति की प्रतीति प्रत्यक्ष से नहीं होती है । ___ यह कहना भी ठीक नहीं है कि पिता आदि में ब्राह्मणत्व के ज्ञान से पुत्र में भी ब्राह्मणत्व का ज्ञान हो जाता है । क्योंकि ब्राह्मण यह शब्द
औपाधिक है ।अतः यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ब्राह्मण शब्द की प्रवृत्ति का निमित्त क्या है-माता-पिता का अविप्लुतत्व ( अव्यभिचारित्व )
अथवा ब्रह्मा से उत्पन्न होना । इनमें से प्रथम पक्ष मानना संगत नहीं है। . क्योंकि अनादि-कालीन माता-पिता की परम्परा में अव्यभिचारित्व का निश्चय संभव नहीं है । कामातुर होने के कारण इस जन्म में भी नारियों में