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________________ . १६० प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन ब्राह्मणत्व जाति के निराकरण के प्रसंग में मिलता है । इस प्रकरण में ब्राह्मणत्व जाति के एकत्व और नित्यत्व का निराकरण करके उसे मनुष्यत्वादि की तरह सदृशपरिणामरूप ही सिद्ध किया है । आचार्य प्रभाचन्द्र जन्मना जाति का निराकरण अनेक युक्तियों से करते हैं और ब्राह्मणत्व जाति को गुणकर्मानुसारिणी मानते हैं । वे ब्राह्मणत्व जाति निमित्तक वर्णाश्रमव्यवस्था और तप, दान आदि के व्यवहार को भी क्रियाविशेष और यज्ञोपवीत आदि चिह्न से उपलक्षित व्यक्ति विशेष में ही करने का परामर्श देते हैं । . पूर्वपक्ष___मीमांसक, नैयायिक आदि कुछ दार्शनिक मानते हैं कि समस्त ब्राह्मणों में रहने वाली ब्राह्मणत्व जाति नित्य और एक है । यह ब्राह्मण है, यह ब्राह्मण है, इत्यादि प्रकार से अनुगतप्रत्ययरूप ब्राह्मणत्व जाति की प्रतीति प्रत्यक्ष से होती है । पिता आदि में ब्राह्मणत्व के ज्ञान से पुत्र में भी ब्राह्मणत्व का ज्ञान हो जाता है । इसी प्रकार अनुमान प्रमाण से भी ब्राह्मणत्व जाति की सिद्धि होती है । ब्राह्मणत्व यह पद घट आदि पद की तरह एक सामान्य पद है और यह पद अनेक ब्राह्मण व्यक्तियों से भिन्न एक सामान्य निमित्त ब्राह्मणत्व से सम्बद्ध है । अनेक ब्राह्मण व्यक्तियों में यह ब्राह्मण है' ऐसा जो व्यवहार होता है वह ब्राह्मणत्व जाति के कारण ही होता है । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक ब्राह्मण व्यक्ति में ब्राह्मणत्व रहता है और इसी कारण सब ब्राह्मण व्यक्तियों में ब्राह्मणत्व का व्यवहार होता है । सब ब्राह्मण व्यक्तियों में यह ब्राह्मण है, यह ब्राह्मण है', ऐसा जो ज्ञान होता है उसका कारण गौर वर्ण, अध्ययन, आचार, यज्ञोपवीत आदि से भिन्न कोई सामान्य ही होता है । अर्थात् ब्राह्मणत्व के कारण ही वैसा ज्ञान होता है । जैसे कि गौ, अश्व आदि का ज्ञान गोत्व, अश्वत्व आदि सामान्य के द्वारा ही होता है । आगमप्रमाण से भी ब्राह्मणत्व की सिद्धि होती है । आगम में बतलाया गया है-'ब्राह्मणेन यष्टव्यं ब्राह्मणो भोजयितव्यः' । अर्थात् ब्राह्मणों को यज्ञ करना चाहिए, ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए, इत्यादि आगम वाक्यों से भी यह सिद्ध होता है कि ब्राह्मण व्यक्तियों से भिन्न एक ब्राह्मणत्व जाति है जो गोत्वादि की तरह सब ब्राह्मण व्यक्तियों में रहती है । यह ब्राह्मणत्व जाति गोत्व, मनुष्यत्व आदि की तरह नित्य, एक तथा व्यापक • है । ऐसा मीमांसक, नैयायिक आदि दार्शनिकों का मत है । .
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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