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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ४, ५
१५९ यौगों ( नैयायिक-वैशेषिक ) ने सामान्य को विशेषों से पृथक् माना है । गोत्व पृथक् है और गाय पृथक् है तथा गोत्व सामान्य सब गायों में समवाय सम्बन्ध से रहता है । किन्तु सामान्य और विशेष को पृथक् पृथक् मानना युक्तिसंगत नहीं है । यथार्थ बात तो यह है कि सामान्य और विशेष परस्पर में पृथक्भूत न होकर अपृथक्भूत हैं । नैयायिक-वैशेषिकों के द्वारा अभिमत नित्य, व्यापक, एक, निष्क्रिय और निरंश सामान्य का बौद्धदार्शनिक धर्मकीर्ति ने जो तार्किक खण्डन किया है उसका उत्तर देना उनके लिए अत्यन्त कठिन है । धर्मकीर्ति ने इस विषय में प्रमाणवार्तिक में कहा
न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न चांशवत् ।
जहाति पूर्वमाधारमहो व्यसनसन्ततिः ॥ इस श्लोक का विशेषार्थ इस प्रकार है । एक गाय के उत्पन्न होने पर उसमें गोत्व सामान्य कहाँ से आता है । किसी दूसरे स्थान से या दूसरे गोपिण्ड से तो गोत्व सामान्य इस गाय में आ नहीं सकता है । क्योंकि नैयायिकों के द्वारा सामान्य को निष्क्रिय माना गया है । यदि ऐसा माना जाय कि सामान्य वहाँ पहले से ही था तो यह भी ठीक नहीं है । क्योंकि आधार के बिना वहाँ सामान्य कैसे रह सकता है । गाय के उत्पन्न हो जाने के बाद भी गोत्व सामान्य वहाँ उत्पन्न नहीं हो सकता है । क्योंकि सामान्य नित्य है । ऐसा भी नहीं हो सकता है कि दूसरी गाय के गोत्व सामान्य का एक अंश इस गाय में आ जाय । क्योंकि सामान्य निरंश है । यह भी संभव नहीं है कि पहली गाय को पूर्णरूप से छोड़कर गोत्व सामान्य पूरा का पूरा इस गाय में आ जाय । क्योंकि ऐसा मानने पर पहली गाय गोत्वरहित हो जाने के कारण गाय ही नहीं रह जायेगी । अत: ऐसा मानना ही युक्तिसंगत है कि सदृशपरिणामलक्षण सामान्य विशेषपरिणामलक्षण विशेष की तरह प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न भिन्न है । इस प्रकार यौगाभिमत सामान्य में अनेक दोष आने के कारण गोत्वादि सामान्य को अनेक, अनित्य और अव्यापक मानना ही श्रेयस्कर है।
ब्राह्मणत्वजातिनिरास आचार्य प्रभाचन्द्र सच्चे तार्किक थे । उनकी तर्कणाशक्ति का परिचय