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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र ४, ५
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वस्तुभूत सामान्य की सिद्धि करती है । बौद्धों का यह कथन भी ठीक नहीं है कि सामान्य और विशेष में बुद्धिभेद न होने के कारण विशेष को छोड़कर अन्य कोई वास्तविक सामान्य नहीं है । क्योंकि सामान्य और विशेष में बुद्धिभेद प्रतीतिसिद्ध है । एक ही आश्रय में रहने वाले रूपरसादि में भी बुद्धिभेद के कारण ही भेद की सिद्धि होती है । यदि एकेन्द्रिय ( चक्षु ) के विषय होने के कारण गोत्वादि सामान्य और कृष्ण, श्वेत आदि गौरूप विशेष में अभेद माना जाय तो वात और आतप में भी अभेद मानना पड़ेगा । क्योंकि वे भी एकेन्द्रिय ( स्पर्शनेन्द्रिय ) के विषय होते हैं । अतः सर्वत्र प्रतिभास भेद ही भेदव्यवस्था का हेतु होता है ।
अनुगताकार सामान्यप्रतिभास का और व्यावृत्ताकार विशेषप्रतिभास का अनुभव यह सिद्ध करता है कि सामान्य और विशेष दोनों का पृथक् अस्तित्व है । अनुगताकार जो सामान्य प्रतिभास होता है वह बाह्य में साधारणनिमित्त गोत्वादि सामान्य के बिना नहीं हो सकता है । असाधारण व्यक्ति विशेष भी सामान्य प्रतिभास के हेतु नहीं हो सकते हैं । क्योंकि वे तो भेदरूप होने के कारण भेद प्रतिभास ही करायेंगे । सामान्य को अतद्व्यावृत्तिरूप अथवा अंतत्कार्यकारणरूप मानना भी युक्तिसंगत नहीं है । क्योंकि यदि खण्डी, मुण्डी आदि गायों में सदृशपरिणमनरूप सामान्य नहीं रहेगा तो उनमें अगोव्यावृत्ति तथा अतत्कार्यकारणव्यावृत्ति भी नहीं बन सकती है । अतत्कार्यकारणव्यावृत्ति का मतलब यह है कि अश्वादि व्यक्तियों की गौ आदि व्यक्तियों के साथ कार्यकारणभाव की व्यावृत्ति है । अर्थात् अश्वादि गौ आदि का न तो कारण हैं और न कार्य हैं । अत गौ में अतत्कार्यकारणव्यावृत्ति रहती है ऐसा बौद्ध मानते हैं । किन्तु इस प्रकार की अतत्कार्यकारणव्यावृत्ति गायों में गोत्व सामान्य के बिना नहीं बन सकती है । यदि अनुगत प्रत्यय सामान्य के बिना भी हो जाता है तो फिर व्यावृत्त प्रत्यय भी विशेष के बिना हो जाने का प्रसंग प्राप्त होगा । इसलिए अनुगताकार प्रतिभास का आलम्बन वस्तुभूत सामान्य को मानना बौद्धों के लिए अपरिहार्य है । इस प्रकार बौद्धाभिमत संवृतिसत् सामान्य का निराकरण
करके यहाँ सामान्य को परमार्थसत् सिद्ध किया गया है । . नैयायिक-वैशेषिक दर्शन में सामान्य का स्वरूप
जिसके कारण एक जाति की वस्तुओं में अनुगत ( सदृश ) प्रतीति