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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन - सामान्य है और मृद्रव्य ऊर्ध्वता सामान्य है । ऐसा जैनदर्शन में सामान्य का स्वरूप है।
बौद्धदर्शन में सामान्य का स्वरूप बौद्धदर्शन में सामान्य पदार्थ के विषय में एक विशिष्ट कल्पना है । सामान्य एक कल्पनात्मक वस्तु है । इसको संवृतिसत् ( अवास्तविक ) माना गया है । बौद्धदर्शन गोत्व, मनुष्यत्व आदि को कोई वास्तविक पदार्थ नहीं मानता है । जितने मनुष्य हैं वे सब अमनुष्य से ( पृथक् ) हैं तथा सब एक सरीखा कार्य करते हैं । अतः उनमें एक मनुष्यत्व सामान्य की कल्पना कर ली गई है । यही बात गोत्व आदि सामान्य के विषय में भी जान लेना चाहिए । गोत्व, मनुष्यत्व आदि सामान्य अतद्व्यावृत्तिरूप है । अर्थात् गोत्वसामान्य अगोव्यावृत्तिरूप है और मनुष्यत्व सामान्य अमनुष्यत्वव्यावृत्तिरूप है । सब गायों में अगोव्यावृत्ति रहती है और इसी अगोव्यावृत्ति को सामान्य माना गया है । बौद्धदर्शन में दो ही तत्त्व हैंविशेष और सामान्य । विशेष को स्वलक्षण कहते हैं । स्वलक्षण को परमार्थसत् माना गया है । बौद्धों का कथन है कि विशेष को छोड़कर अन्य कोई वास्तविक तत्त्व नहीं है । यह सामान्य है और यह विशेष है ऐसा बुद्धिभेद कभी नहीं होता है । तथा बुद्धिभेद के बिना पदार्थों में भेद की व्यवस्था नहीं की जा सकती है । अतः खण्डी, मुण्डी आदि गौ व्यक्तियों के अतिरिक्त अन्य किसी सामान्य की प्रतीति न होने से जैनों के द्वारा माना गया सामान्य का लक्षण अवास्तविक है । ऐसी बौद्धों की मान्यता है ।
जैनदर्शन की दृष्टि से बौद्धों की उक्त मान्यता समीचीन नहीं है । क्योंकि 'गौ गौ' इत्यादिरूप से अबाधित प्रत्यय के विषयभूत गोत्वादि सामान्य का अभाव नहीं किया जा सकता है । यदि जो अबाधित प्रत्यय का विषय है उसका भी असत्त्व माना जाय तो विशेष का भी असत्त्व मानना पड़ेगा । बुद्धि में जो अनुगताकार की प्रतीति होती है वह किसी भी प्रमाण से बाधित नहीं होती है । वह प्रत्येक देश में और प्रत्येक काल में अबाधित ही रहती है और पदार्थों में सामान्य के व्यवहार का हेतु होती है । अतः अनुगताकार का प्रतिभास करने वाली अबाधित बुद्धि अनुगताकाररूप