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चतुर्थ परिच्छेद : सूत्र १-५
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मतलब है-अर्थ का अपना काम । प्रत्येक पदार्थ अपना काम करता है । परन्तु प्रत्येक पदार्थ में अर्थक्रिया तभी बन सकती है जब वह सामान्यविशेषात्मक हो । पूर्व पर्याय का त्याग और उत्तर पर्याय की अवाप्ति ( प्राप्ति ) ये दोनों अवस्थाएं विशेषरूप हैं तथा उन दोनों अवस्थाओं में रहनेवाला ध्रौव्यरूप द्रव्य सामान्यरूप है । इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषरूप है और ऐसे पदार्थ से ही अर्थक्रिया हो सकती है । इससे भी यह सिद्ध होता है कि सब पदार्थ सामान्यविशेषात्मक हैं ।
. सामान्य के भेद
सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात् ॥३॥ तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य के भेद से सामान्य दो प्रकार का है ।
तिर्यक् सामान्य का स्वरूप सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् ॥४॥ - एक जाति के सब द्रव्यों में जो सदृश परिणमन होता है उसे तिर्यक् सामान्य कहते हैं । जैसे.खण्डी, मुण्डी आदि सब गायों में 'गौ गौ' ऐसा जो प्रत्यय होता है वह गोत्व सामान्य के कारण होता है । अतः गोत्व तिर्यक् सामान्य कहलाता है । इसी प्रकार अन्य सब पदार्थों में तिर्यक् सामान्य रहता है । जैसे सब मनुष्यों मनुष्यत्व और सब घटों में घटत्व रहता है वह तिर्यक् सामान्य है । . ऊर्ध्वता सामान्य का स्वरूप परापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्खता मृदिव स्थासादिषु ॥५॥ • पूर्वापर पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं । से अपनी स्थास, कोश, कुशूल आदि पर्यायों में रहनेवाला मृद्रव्य ऊर्ध्वता-सामान्य कहलाता है। . घट की उत्पत्ति के पहले मृद्रव्य क्रमशः शिवक, छत्रक, स्थास, कोश, कुशूल आदि विभिन्न पर्यायों में रहकर अन्त में घट पर्याय के रूप में उत्पन्न होता है । मृद्रव्य का अन्वय स्थास आदि सब पर्यायों में समानरूप से पाया जाता है । अतः अनुवृत्त प्रत्यय का विषय होने के कारण गोत्व की तरह मृद्रव्य भी सामान्य है । विशेषता यह है कि गोत्व तिर्यक्