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चतुर्थ परिच्छेद इस परिच्छेद में प्रमाण के विषय का विवेचन किया गया है । यहाँ सर्वप्रथम यह बतलाया गया है कि प्रमाण का विषय क्या है
सामान्यविशेषात्मा तदर्थो विषयः ॥१॥ सामान्य और विशेषरूप अर्थ प्रमाण का विषय होता है ।
जैनदर्शन में प्रत्येक पदार्थ न केवल सामान्य रूप है और न विशेष रूप है, किन्तु उभयरूप है । कुछ दार्शनिक पदार्थ को केवल सामान्यरूप मानते हैं तथा अन्य दार्शनिक उसे केवल विशेषरूप मानते हैं । परन्तु जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ उभयरूप ( सामान्य-विशेषात्मक ) है और ऐसा पदार्थ ही प्रमाण का विषय होता है ।
इसी बात का समर्थन आगे सूत्र में किया गया हैअनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात् पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेन अर्थक्रियोपपत्तेश्च ॥२॥
अनुवृत्त और व्यावृत्त प्रत्यय का गोचर ( विषय ) होने से तथा पूर्व आकार का परिहार, उत्तर आकार की प्राप्ति और दोनों आकारों में स्थित रहने वाले ध्रौव्यरूप परिणाम के द्वारा अर्थक्रिया की उपपत्ति ( सद्भाव ) होने से यह सिद्ध होता है कि प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है ।
प्रत्येक पदार्थ अनुवृत्त और व्यावृत्त प्रत्यय का विषय होता है । सब गायों में गौ गौ' इत्यादिरूप से जो प्रत्यय ( बोध ) होता है वह अनुवृत्त प्रत्यय है । अनुवृत्त प्रत्यय का विषय सामान्य है । श्याम गाय धवल गाय से भिन्न है, इत्यादिप्रकार से सब गायों में परस्पर में भेद कराने वाला जो प्रत्यय है वह व्यावृत्त प्रत्यय कहलाता है । व्यावृत्त प्रत्यय का विषय विशेष होता है । बाह्य तथा आध्यात्मिक जितना भी प्रमेय है वह सब अनुवृत्त और व्यावृत्त प्रत्यय का विषय होता है । इससे यह सिद्ध होता है कि सब प्रमेय सामान्य-विशेषात्मक हैं । प्रत्येक अर्थ को सामान्यविशेषरूप सिद्ध करने के लिए एक हेतु और भी है । प्रत्येक पदार्थ में अर्थक्रिया देखी जाती है जलधारण आदि घट की अर्थक्रिया है । शीतनिवारण आदि पट की अर्थक्रिय है । इस प्रकार सब पदार्थों के द्वारा अर्थक्रिया की जाती है । अर्थक्रिया क