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________________ तृतीय परिच्छेदः सूत्र १०१ १५३ वर्ण जब परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं तभी घट पद बनता है । यह पद किसी अन्य वर्ण की अपेक्षा नहीं रखता है । इसी प्रकार परस्पर सापेक्ष पदों के निरपेक्ष समुदाय का नाम वाक्य है । जैसे महावीर अन्तिम तीर्थंकर हैं । इस वाक्य में चार पद हैं और वे परस्पर में सापेक्ष हैं । तथा इन चारों के मेल से जो वाक्य बना है वह अन्य किसी पद की अपेक्षा नहीं रखता है। ___एक अन्य प्रकार का भी वाक्य होता है जो प्रकरणगम्य होता है और जिसे मूल वाक्य में जोड़कर अर्थ का प्रतिभास कराया जाता है । जैसे 'न देवः' इस सूत्र के वाक्य में 'नपुंसकाः भवन्ति' यह प्रकरण गम्य है और मूल वाक्य में इसकी अपेक्षा रहती है । तभी पूरा अर्थ समझ में आता है कि देव नपुंसक नहीं होते हैं । निराकांक्षत्व धर्म प्रतिपत्ता पुरुष का है, वाक्य या पद का नहीं । यदि कोई पुरुष न देवाः' इतने मात्र से पूरा अर्थ समझ लेता है तो उसे 'नपुंसकाः भवन्ति' इस वाक्य की आकांक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है । इसी प्रकार किसी ने कहा- 'तत्र च सत्यभामा' इस वाक्य में तिष्ठति' इतना पद अपेक्षित है । फिर भी 'न देवाः और तत्र च सत्यभामा' ये दोनों वाक्य कहलाते हैं । क्योंकि प्रकरण के ज्ञाता पुरुष को इतने वाक्य से भी अर्थ की प्रतिपत्ति हो जाती है । • तृतीय परिच्छेद समाप्त. .तृतीय
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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