________________
तृतीय परिच्छेद : सूत्र १०१
१५१
अर्थ की प्रतीति होती है तो अदृष्ट कारण स्फोट की कल्पना करना युक्ति संगत नहीं है । स्फोटवादियों का कहना है व्यस्त वर्णों से अथवा समस्त वर्णों से अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती है । इस विषय में हमारा कहना यह है कि जैनमतानुयायी श्रूयमाण पूर्ववर्णध्वंसविशिष्ट अन्त्यवर्ण से गौ आदि अर्थ की प्रतीति मानते हैं । इसलिए पूर्व वर्गों के उच्चारण के व्यर्थ होने का दोष हमारे मत में नहीं आता है । हम यह भी कह सकते हैं कि पूर्व वर्गों से जनित संस्कार की अपेक्षा से अन्त्य वर्ण अर्थ की प्रतीति कराता है । सर्वप्रथम प्रथम वर्ण का ज्ञान होता है और उसके द्वारा संस्कार उत्पन्न होता है । इसके बाद द्वितीय वर्ण का ज्ञान होता है और पूर्व वर्ण से प्राप्त संस्कार सहित उसके द्वारा एक विशिष्ट संस्कार उत्पन्न होता है । इसी प्रकार की प्रक्रिया तृतीयादि वर्गों में भी समझ लेना चाहिए । इस प्रकार पूर्व वर्गों के ज्ञान से उत्पन्न होने वाला संस्कार अन्त्य वर्ण की सहायता करता है और उससे अर्थ की प्रतीति होती है । पदार्थ की प्रतिपत्ति में जो प्रक्रिया ऊपर बतलायी गई है वही प्रक्रिया वाक्यार्थ की प्रतिपत्ति में भी स्वीकार करना चाहिए । इस प्रकार सहकारी कारण तालु आदि की अपेक्षा से अन्त्य वर्ण के द्वारा अर्थ की प्रतिपत्ति का निश्चय अन्वय-व्यत्तरेक के द्वारा हो जाता है । हम कह सकते हैं कि पूर्व वर्ण सापेक्ष अन्त्य वर्ण के सद्भाव में पदार्थ की प्रतिपत्ति होती है और उसके अभाव में पदार्थ की प्रतिपत्ति नहीं होती है । ऐसी स्थिति में अदृष्ट स्फोट की परिकल्पना करना युक्तिसंगत नहीं है। __स्पोटवादी मानते हैं कि व्यस्त वर्गों से अथवा समस्त वर्णों से अर्थ की प्रतीति नहीं होती है । यदि ऐसा है तो हम उनसे यह भी कह सकते हैं कि वर्गों से स्फोट की अभिव्यक्ति कैसे होगी । जिस प्रकार समस्त वर्ण अथवा व्यस्त वर्ण अर्थ की प्रतीति नहीं करा सकते हैं, उसी प्रकार वे स्फोट की अभिव्यक्ति भी नहीं करा सकते हैं । अतः स्फोट के अभिनिवेश को छोड़ देना ही श्रेयस्कर है ।
यहाँ जानने योग्य विशेष बात यह है कि चैतन्य आत्मा को छोडकर अन्य किसी पदार्थ में अर्थ को जानने का सामर्थ्य ही नहीं है । इसलिए जानने की शक्ति सम्पन्न आत्मा को ही स्फोट मान लेना चाहिए । 'स्फुटतिं प्रकटीभवति अर्थ: अस्मिन् इति स्फोट: चिदात्मा' । इस प्रकार स्फोट शब्द