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तृतीय परिच्छेद : सूत्र १०१
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सकेगी । अन्यापोहवादियों का एक कथन यह भी है कि सब शब्द वक्ता की विवक्षामात्र के सूचक होते हैं, अर्थ के सूचक नहीं । यदि ऐसा है तो सब प्रकार के शब्दों से जन्य ज्ञान को प्रमाण मानना पड़ेगा और प्रतिवादियों आगमों को भी प्रमाण मानना होगा । क्योंकि वे भी वक्ता के अभिप्राय के अथवा प्रतिवादियों के अभिप्राय के सूचक होते हैं । जिस प्रकार कुछ शब्दों का अर्थ के साथ व्यभिचार देखा जाता है उसी प्रकार वक्ता की विवक्षा के साथ भी व्यभिचार पाया जाता है । अन्य किसी अर्थ की विवक्षा होने पर भी स्खलन के कारण वक्ता के मुख से कोई दूसरा ही शब्द निकल जाता है । अत: शब्द न तो विवक्षा के सूचक हैं और न अन्यापोह के वाचक हैं ।
उक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि प्रत्यक्ष की तरह शब्दों के द्वारा बाह्य अर्थ की प्रतिपत्ति, प्रवृत्ति और प्राप्ति होती है । जिस प्रकार प्रतिपत्ता ( ज्ञाता ) को उपयोगरूप सामग्री सापेक्ष प्रत्यक्ष से बाह्य पदार्थ की प्रतिपत्ति होती है, उसी प्रकार संकेत सामग्री सापेक्ष शब्द से अर्थ की प्रतिपत्ति होती है तथा शब्द घटादि अर्थ के प्रतिपादक होते हैं । इस प्रकार बौद्धों का अन्यापोहवाद निरस्त हो जाता है ।
स्फोटवाद
पूर्वपक्ष
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भर्तृहरि आदि वैयाकरण ( व्याकरणशास्त्री) मानते हैं कि शब्द पदार्थ का वाचक नहीं होता है, किन्तु स्फोट पदार्थ का वाचक होता है । अर्थात् गकारादि वर्णों द्वारा अभिव्यज्यमान एक स्फोट नामक तत्त्व है जो पदार्थ का वाचक होता है । स्फ़ोट एक, व्यापक तथा नित्य है । स्फोटवादी कहते हैं कि क्षणिक होने के कारण शब्द से अर्थबोध नहीं हो सकता है । अतः शब्द नित्य शब्दात्मा को अभिव्यक्त करता है और उससे अर्थबोध होता है । उसी अभिव्यंग शब्दात्मा को स्फोट कहते हैं । स्फोट के दो भेद किये जा सकते है - पदस्फोट और वाक्यस्फोट । पदस्फोट पद के अर्थ का बोध कराता है और वाक्यस्फोट वाक्य के अर्थ का बोध कराता है ।
स्फोटवादियों का कहना है कि अकारादि वर्ण अर्थ के वाचक नहीं हो सकते हैं । यदि वर्णों को वाचक माना जाय तो व्यस्त वर्ण वाचक होंगे