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________________ १४८ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन .. शब्द भिन्न होते हैं । जो शब्द अर्थ के अभाव में भी पाये जाते हैं उनका अर्थ के साथ व्यभिचार होने पर भी सब शब्दों का अर्थ के साथ व्यभिचार सिद्ध नहीं किया जा सकता है । अन्यथा स्वप्रप्रत्यय के भ्रान्त होने के कारण अन्य सब प्रत्ययों को भी भ्रान्त मानना पड़ेगा । शब्दों को अन्यापोह का वाचक मानना प्रतीतिविरुद्ध है । गौशब्द के कहने पर विधिरूप गौरूप अर्थ की ही प्रतीति होती है तथा निषेधरूप अगोव्यावृत्ति की प्रतीति नहीं होती है । शब्द को अन्यापोह का वाचक मानने में प्रतीति विरोध आता है । यदि गौ शब्द से अगोव्यावृत्ति की प्रतीति होती है तो गौशब्द के सुनने के अनन्तर श्रोता को अगौ ( अश्वादि ) की प्रतीति होना चाहिए । किन्तु ऐसा होता नहीं है। ___ यहाँ यथार्थ बात यह है कि बौद्ध जिस अगोव्यावृत्तिरूप सामान्य को गौशब्द का वाच्य मानते हैं उसीको हम लोग गोत्वरूप सामान्य कहते हैं और उसी को गौ शब्द का वाच्य मानते हैं । गोत्वविशिष्ट गौ 'गौ' शब्द का वाच्य होती ही है । इस प्रकार केवल नाम में भेद है, अर्थ में नहीं । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि शब्दों का वाच्य अन्यापोह नहीं है । प्रतिनियत शब्द से प्रतिनियत अर्थ में प्राणियों की प्रवृत्ति देखी जाती है । इसलिए भी शब्दजन्य ज्ञान का विषय वास्तविक अर्थ है, अन्यापोह नहीं । बौद्धों के इस कथन में कोई सार नहीं है कि अर्थ के अभाव में भी शब्दों की प्रवृत्ति होने के कारण शब्द अर्थ के वाचक नहीं हैं । यदि किसी शब्द का किसी अर्थ के साथ व्यभिचार पाया जाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि सब शब्दों का अर्थ के साथ व्यभिचार अवश्य होगा । यदि किसी शब्द के प्रतिपाद्य विषय में विसंवाद होने के कारण सब शब्दों के विषयों में विसंवाद माना जाय तो किसी प्रत्यक्ष में विसंवाद होने के कारण अन्य सब प्रत्यक्षों को भी विसंवादी मानना पड़ेगा। यदि ऐसा माना जाय कि शब्द अभाव ( अपोह ) का कथन करते हैं, भाव का नहीं । तो ऐसा मानने में महान् अनर्थ की संभावना रहेगी। अर्थात् तब आप्त प्रणीत आगम से देश, द्वीप, समुद्र, पर्वत, स्वर्ग, अपवर्ग आदि पदार्थों की प्रतिपत्ति कैसे होगी तथा कल्याण कारक अनुष्ठानों में प्रवृत्ति कैसे होगी । उक्त मत के मानने पर तत्त्व और अतत्त्वं की प्रतिपत्ति न हो सकने के कारण सत्य और असत्य की व्यवस्था भी नहीं बन
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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