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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन सम्बन्ध नित्य है । किन्तु ऐसी बात नहीं है । हस्तसंज्ञा ( हस्त संकेत ) आदि के सम्बन्ध की तरह शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनित्य होने पर भी अर्थ की प्रतिपत्ति का हेतु होता है । हस्तसंज्ञा आदि का अपने अर्थ के साथ सम्बन्ध नित्य नहीं है, फिर भी वह अर्थ का प्रतिपादक होता ही है । यह तो सब जानते ही हैं कि हाथ के द्वारा इशारा करने से किसी वस्तु का बोध हो जाता है । यह बात भी प्रत्यक्षसिद्ध है कि हस्तसंज्ञा का अपने अर्थ के साथ सम्बन्ध अनित्य है । ___इसी प्रकार शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनित्य है और उसके द्वारा अर्थ की प्रतिपत्ति होती ही है । इसमें कोई बाधा भी नहीं आती है । अत: शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को नित्य मानना तर्कसंगत नहीं है । शब्द, अर्थ
और उनके सम्बन्ध को सर्वथा नित्य नहीं माना जा सकता है । क्योंकि सर्वथा नित्य वस्तु न तो क्रम से अर्थक्रिया कर सकती है और न युगपत् । यह बात किसी प्रमाण से भी सिद्ध नहीं होती है कि शब्द और अर्थ का सम्बन्ध नित्य है । अतः शब्द स्वाभाविक योग्यता के कारण अर्थ के प्रतिपादक होते हैं । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि प्रमाण और प्रमेय में ज्ञाप्यज्ञापक सम्बन्ध की तरह शब्द और अर्थ में वाच्यवाचक सम्बन्ध होता है, किन्तु वह सम्बन्ध नित्य न होकर अनित्य है । चाहे लौकिक शब्द हों अथवा वैदिक शब्द हों, वे सब सहज योग्यता और संकेत के कारण ही अर्थ के प्रतिपादक होते हैं।
अन्यापोहवाद पूर्वपक्ष__जबकि अन्य सब दर्शन शब्द को अर्थ का वाचक मानते हैं तब इस विषय में बौद्धदर्शन की कल्पना नितान्त भिन्न है । बौद्धदर्शन के अनुसार शब्द अर्थ का प्रतिपादन नहीं करते हैं । शब्दों में यह शक्ति ही नहीं है कि वे स्वलक्षणरूप अर्थ को कह सकें । क्योंकि शब्द और अर्थ में वाच्यवाचक सम्बन्ध ही नहीं है । एक बार यह भी है कि जो शब्द अर्थ के होने पर देखे जाते हैं वे ही शब्द अर्थ के अभाव में भी देखे जाते, जैसे राम, रावणादि शब्द । जिसके अभाव में जो देखा जाता है वह उससे संम्बद्ध नहीं हो सकता है । जैसे अश्व के अभाव में दृश्यमान गौ अश्व से सम्बद्ध नहीं है,