________________
तृतीय परिच्छेद : सूत्र १००-१०१
१४५ है, स्वरूप में नहीं । इस प्रकार शब्दों में न तो नित्यत्व सिद्ध होता है और न व्यापकत्व ।
उपर्युक्त कथन का सारांश यह है कि जिस प्रकार घट दण्ड, चक्र आदि के व्यापार का कार्य है उसी प्रकार शब्द तालु आदि के व्यापार का कार्य है । न तो वह नित्य है और न व्यापक है, वह तो पौद्गलिक है । जैनदर्शन में शब्द को पुद्गल द्रव्य की पर्याय माना गया है ।
शब्दार्थसम्बन्धविचार यहाँ बौद्धों की आशंका है कि शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध न होने के कारण आप्तवचन से अर्थ का ज्ञान कैसे हो सकता है ? इसके उत्तर में आचार्य सूत्र कहते हैं- . सहजयोग्यतासङ्केतवशाद्धि शब्दादयः वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः ॥१००॥ __ शब्द और अर्थ में वाच्यवाचकशक्तिरूप अथवा प्रतिपाद्यप्रतिपादकशक्तिरूप स्वाभाविक योग्यता रहती है । उस योग्यता में संकेत का ग्रहण होने पर शब्द वस्तु की प्रतिपत्ति के हेतु होते हैं । यहाँ आदि शब्द से हस्त, अंगुली आदि के संकेत का ग्रहण करना चाहिए । इसी बात को उदाहरण द्वारा समझाते हैं- .
यथा मेर्वादयः सन्ति ॥१०१॥ जेसे कि मेरु आदि हैं । यहाँ मेरु शब्द और मेरु अर्थ में वाच्यवाचकरूप स्वाभाविक योग्यता है । मेरु शब्द वाचक है और मेरु अर्थ वाच्य है । अतः मेरु शब्द का मेरु अर्थ में संकेत ग्रहण हो जाने पर मेरु शब्द के सुनने पर मेरु अर्थ का ज्ञान हो जाता है । इस शब्द से इस अर्थ का बोध होता है, इस प्रकार के ज्ञान को संकेत ग्रहण कहते हैं । और शब्द से अर्थ का ज्ञान करने के लिए संकेत ग्रहण आवश्यक है । .. मीमांसकों की मान्यता है कि शब्दों में जो सहज योग्यता है वह नित्य है । उसको अनित्य मानने पर अनेक दोष आते हैं । अतः उसे नित्य मानना आवश्यक है । और नित्य योग्यता से सम्बद्ध होने के कारण शब्द · वस्तु की प्रतिपत्ति के हेतु होते हैं । ऐसा कहने वाले मीमांसक तत्त्वज्ञ नहीं हैं । मीमांसकों के उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि शब्द और अर्थ का