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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . . इसी प्रकार शब्द को व्यापक मानना भी सर्वथा असंगत है । हम कह सकते हैं कि गौ, अश्व आदि शब्द अनेक हैं । क्योंकि घटादि की तरह एक ही पुरुष के द्वारा एक ही काल में तथा अनेक देशों में भिन्न भिन्न स्वरूप ( आकार ) वाले शब्दों की उपलब्धि होती है । फिर भी शब्द को व्यापक माना जाय तो घट को भी व्यापक मानना चाहिए । अकारादि वर्गों में हस्व, दीर्घ, उदात्त, अनुदात्त आदि का भेद देखा जाता है । इससे भी यह सिद्ध होता है कि घटादि की तरह शब्द अनेक हैं । शब्दों में पाये जाने वाले हस्व, दीर्घ आदि स्वभाव को व्यंजक ध्वनियों का धर्म मानना भी ठीक नहीं है । यथार्थ बात तो यह है कि जब तालु आदि का व्यापार महान् होता है तब महत्त्व धर्मयुक्त शब्द की उत्पत्ति होती है और जब तालु आदि का व्यापार अल्प होता है तब अल्पत्व धर्मयुक्त शब्द की उत्पत्ति होती है । तालु आदि को शब्द का व्यंजक मानना भी गलत है । यदि तालु आदि शब्द के व्यंजक है, उत्पादक नहीं, तो तालु आदि का व्यापार होने पर नियम से शब्द की उपलब्धि नहीं हो सकती है । ऐसा कोई नियम नहीं है कि जहाँ व्यंजक प्रदीपादि का व्यापर होगा वहाँ व्यंग्य घटादि की उपलब्धि होगी ही । यह तो कारण चक्रादि के व्यापार का नियम है कि उसके होने पर घटादि कार्य की उत्पत्ति नियम से होती है ।
मीमांसक मानते हैं कि तालु आदि के व्यापार से व्यंजक ध्वनियों की उत्पत्ति होती है और ध्वनियों के द्वारा शब्दों की अभिव्यक्ति होती है । ध्वनि को वायु भी कहते हैं । यहाँ यह विचारणीय है कि ध्वनियाँ श्रोत्र ग्राह्य हैं अथवा नहीं । यदि ध्वनियाँ श्रोत्रग्राह्य हैं तो वे ही शब्द हुईं। क्योंकि श्रोत्रग्राह्यत्व ही शब्द का लक्षण है । और यदि ध्वनियाँ श्रोत्रग्राह्य नहीं हैं तो अल्पत्व, महत्त्व आदि उनका धर्म श्रोत्रग्राह्य कैसे हो सकता है ? शब्द की उपलब्धि तो श्रोत्रमात्र से हो जाती है । इसके लिए ध्वनि आदि अन्य किसी कारण की कल्पना करना व्यर्थ है । यदि श्रोत्रप्रदेश में ही ध्वनियों के द्वारा शब्द की उपलब्धि होती है तो इससे यही सिद्ध होता है कि शब्द अव्यापक है, सर्वगत नहीं । जैनों ने शब्द में श्रवणस्वभाव के उत्पाद-विनाश को शब्द का उत्पाद-विनाश कहा है, उसी को मीमांसकों ने शब्द की अभिव्यक्ति और तिरोभाव कहा है । यहाँ केवल नाम में ही भेद