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तृतीय परिच्छेद : सूत्र ९९
१४३ यहाँ कोई कह सकता है कि यदि शब्द व्यापक है तो किसी शब्द के उच्चारण करने पर प्रतिनियत देश में ही उस शब्द की प्रतीति क्यों होती है ? सब देशों में उसकी प्रतीति क्यों नहीं होती ? इसका उत्तर यह है कि शब्द की उपलब्धि व्यंजक ध्वनियों के अधीन है । ओष्ठ, तालु आदि के व्यापार से व्यंजक ध्वनियों की उत्पत्ति होती है और जिस देश में व्यंजक ध्वनि का सदभाव होता है वहाँ शब्द की उपलब्धि होती है, अन्यत्र नहीं । सूर्य की तरह गकारादि शब्द एक होकर भी भिन्न-भिन्न देशों में उपलब्ध होता है । इस प्रकार मीमांसकों ने शब्दों में नित्यत्व और व्यापकत्व सिद्ध किया है। उत्तरपक्ष
मीमांसकों का उक्त मत तर्कसंगत नहीं है । शब्द को नित्य और व्यापक मानना प्रतीतिविरुद्ध है । यह कहना सर्वथा गलत है कि शब्द को अनित्य मानने पर उससे अर्थ की प्रतीति नहीं हो सकेगी । जिस पुरुष ने शब्द का अर्थ के साथ संकेत ग्रहण कर लिया है उस पुरुष को सादृश्य के कारण अनित्य शब्द से भी अर्थ की प्रतीति होने में कोई बाधा नहीं है । ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो शब्द संकेतकाल में गृहीत हुआ है उसी शब्द से अर्थ की प्रतीति होना चाहिए । जिस प्रकार महानस में दृष्ट धूम के सदृश धूम से पर्वत में अग्नि की प्रतीति होती है, उसी प्रकार संकेतकाल में गृहीत शब्द के सदृश शब्द से भी अर्थ की प्रतीति होती है । अत: मीमांसकों का यह कथन ठीक नहीं है कि सादृश्य के कारण शब्द से अर्थ की प्रतीति नहीं हो सकती है । हमारा तो ऐसा मत है कि सदृशपरिणामलक्षण सामान्य से विशिष्ट शब्द अर्थ का प्रतिपादक होता है । अर्थात् केवल शब्दत्व सामान्य अर्थ का प्रतिपादक नहीं होता है किन्तु सामान्यविशिष्ट शब्द अर्थ का प्रतिपादक माना गया है । यह कहना भी संगत नहीं है कि सादृश्य के कारण शब्द से अर्थ की प्रतीति मानने पर शाब्द प्रत्यय भ्रान्त हो जायेगा । यदि ऐसा है तो महानस में दृष्ट धूम के सदृश धूम से पर्वत में जो अग्नि की प्रतीति होती है उसे भी भ्रान्त मानना पड़ेगा । अतः शब्द के अनित्य होने पर भी सादृश्य के कारण तत्सदृश दूसरे शब्द से अर्थ की प्रतीति होती है
और ऐसा मानने में किसी प्रकार की बाधा नहीं है । इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि शब्द अनित्य है और उससे अर्थ की प्रतीति होती है ।