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________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . भारताध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् । तदध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा ॥ महाभारत आदि का अध्ययन गुरु के द्वारा अध्ययनपूर्वक ही होता है, महाभारताध्ययन का वाच्य होने से, जैसे कि वर्तमान अध्ययन । इसलिए रामायण, महाभारत आदि को भी वेद के समान अपौरुषेय सिद्ध किया जा सकता है । इसीप्रकार वर्तमान काल की तरह अतीत और अनागत काल को भी वेदकार रहित सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त कालत्व हेत् भी मिर्दोष नहीं है । भले ही वर्तमान काल में कोई वेद का कर्ता न हो, किन्तु भूत में कोई वेदकर्ता नहीं था और भविष्य में कोई वेदकर्ता नहीं होगा, यह कैसे सिद्ध किया जा सकता है ? यदि कालत्व हेतु से वेद को अपौरुषेय सिद्ध किया जा सकता है तो इसी हेतु से महाभारत आदि को अपौरुषेय सिद्ध करने में क्या बाधा है ? मीमांसक ने कहा था अतीतानागतौ कालौ वेदकारविवर्जितौ, इत्यादि । इसके विपरीत हम यह भी कह सकते हैं-' अतीतानागतौ कालौ वेदार्थज्ञविवर्जितौ । कालशब्दाभिधेयत्वादधुनातनकालवत् ॥ अतीत और अनागत काल वेदार्थज्ञ से रहित हैं, क्योंकि वे काल शब्द के अभिधेय हैं, जैसे कि वर्तमान काल । इस प्रकार अस्मर्यमाणकर्तृकत्व, वेदाध्ययनवाच्यत्व और कालत्व हेतु वेद को अपौरुषेय सिद्ध करने में समर्थ नहीं हैं। थोड़ी देर को मान लिया जाय कि वेद अपौरुषेय हैं, तो यहाँ एक समस्या उपस्थित होती है कि वेद अव्याख्यात रह कर अपने अर्थ का प्रतिपादन करते हैं अथवा व्याख्यात होकर अर्थ का प्रतिपादन करते हैं । प्रथम पक्ष मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है । क्योंकि अव्याख्यात वेद जैसे मीमांसक को अपने अर्थ का ज्ञान कराते हैं वैसे ही हम सबको भी वेद के अर्थ का ज्ञान करायेंगे । और ऐसी स्थिति में वेदार्थ के विषय में कोई विवाद नहीं रहना चाहिए । किन्तु वेदार्थ के विषय में विवाद देखा जाता है । अन्यथा भावना, विधि और नियोग के रूप में वेदवाक्यों का भिन्न भिन्न अर्थ नहीं किया जाता । अब यदि माना जाय कि वेद व्याख्यात होकर
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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