SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय परिच्छेद : सूत्र ९९ १३९ कृतक होने से वर्ण भी घट की तरह पौरुषेय हैं । तालु, ओष्ठ आदि के व्यापार के होने पर ही अकारादि वर्णों की उत्पत्ति होती है, जैसे चक्रादि के व्यापार के होने पर घट की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार वर्ण, पद और वाक्य ये तीनों पौरुषेय हैं । अतः वर्ण, पद और वाक्यों के समूहरूप वेद अपौरुषेय कैसे हो सकते हैं ? प्रत्यक्षादि प्रमाणों में से कोई भी प्रमाण वेद . के अपौरुषेयत्व का साधक नहीं है । इसलिए वेद में अपौरुषेयत्व कैसे सिद्ध हो सकता हैं ? अस्मर्यमाणकर्तृकत्व हेतु से भी वेद को अपौरुषेय सिद्ध नहीं किया जा सकता है । क्योंकि जीर्णकूप, जीर्णप्रासाद आदि ऐसी कई वस्तुएँ हैं जिनके कर्ता का किसी को स्मरण नहीं होता है, किन्तु इतने मात्र से वे अपौरुषेय सिद्ध नहीं हो जाती हैं । एक बात यह भी है कि जो वस्तु नित्य है उसे अस्मर्यमाणकर्तृक कहना उचित नहीं है, उसे तो अकर्तृक ही कहना चाहिए । वादी मीमांसक को वेदों के कर्ता का स्मरण न भी हो, किन्तु . प्रतिवादी बौद्ध आदि वेदों के कर्ता का स्मरण करते ही हैं । पौराणिक लोग मानते हैं कि ब्रह्मा वेदों का कर्ता है । कहा भी है वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य निसृताः प्रतिमन्वन्तरं चैव श्रुतिरन्या विधीयते । अर्थात् ब्रह्मा के मुख से वेद. निकले हैं । प्रत्येक मनु के काल में अन्य अन्य श्रुति ( वेद ) का विधान किया जाता है । जिस प्रकार स्मृति, पुराण आदि ग्रन्थों में उनके रचयिता ऋषियों के नाम पाये जाते हैं, उसी प्रकार ऋषियों के नाम से अंकित काण्व, माध्यन्दिन, तैत्तरीय आदि शाखाभेद वेदों में भी पाये जाते हैं । जो शाखा कण्व ऋषि द्वारा निर्मित है उसे काण्व शाखा, जो मध्यन्दिन ऋषि के द्वारा निर्मित है उसे माध्यन्दिन शाखा और जो. तित्तरीय ऋषि द्वारा निर्मित है उसे तैत्तरीय शाखा कहते हैं । बौद्ध अष्टक को वेद का कर्ता मानते हैं । कोई हिरण्यगर्भ को वेद का कर्ता मानते हैं । ऐसी स्थिति में वेदों को अस्मर्यमाणकर्तृक कैसे माना जा सकता है ? अतः वेद में अपौरुषेयत्व सिद्ध करने के लिए अस्मर्यमाणकर्तृकत्व हेतु सक्षम नहीं है । इसी प्रकार वेदाध्ययनवाच्यत्व हेतु के द्वारा भी वेद में अपौरुषेयत्व की सिद्धि नहीं की जा सकती है । इस प्रकार तो हम रामायण, महाभारत आदि को भी अपौरुषेय सिद्ध कर सकते हैं । हम कह सकते हैं +
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy