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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन .. वेदस्याध्ययनं सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वकम् ।
वेदाध्ययनवाच्यत्वादधुनाध्ययनं यथा ॥ जिस प्रकार वर्तमानकाल में गुरु के द्वारा ही वेदों का अध्ययन देखा जाता है उसी प्रकार सब कालों में भी वेदों के अध्ययन की यही परम्परा है । यहाँ वेदाध्ययनवाच्यत्व हेतु से वेद में अपौरुषेयत्व की सिद्धि की गई है । इसी विषय में और भी कहा गया है
अतीतानागतौ कालौ वेदकारविवर्जितौ। ..
कालत्वात् तद् यथा कालो वर्तमानः समीक्षते ॥ जिस प्रकार वर्तमान काल में वेद का कोई कर्ता नहीं है उसी प्रकार अतीत और अनागत काल में भी वेद का कोई कर्ता नहीं है, क्योंकि वे भी काल हैं । यहाँ कालत्व हेतु से वेद में अपौरुषेयत्व सिद्ध किया गया है । अपौरुषेय होने से वेदों में किसी प्रकार के दोष की संभावना भी नहीं रहती है । शब्दों में दोषों का होना वक्ता के अधीन होता है । यदि वक्ता गुणवान् है तो शब्दों में दोषों का अभाव स्वतः सिद्ध हो जाता है । अथवा वक्ता के न रहने से भी दोषों की संभावना नहीं रहती है । क्योंकि दोष निराश्रय नहीं रह सकते हैं । दोषों का आधार वक्ता है और जब वेदों का कोई रचयिता ही नहीं है तब उनमें दोष कहाँ से आयेंगे ? इत्यादि प्रकार से मीमांसकों ने वेदों में अपौरुषेयत्व की सिद्धि की है। उत्तरपक्ष
मीमांसकों का उक्त कथन समीचीन नहीं है । यहाँ हम मीमांसकों से पछना चाहते हैं कि आप पद में, वाक्य में अथवा वर्गों में से किसमें अपौरुषेयत्व सिद्ध करना चाहते हैं । पद और वाक्य में तो अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं होता है । हम कह सकते हैं कि वेद के पद और वाक्य पौरुषेय हैं, पद और वाक्य होने से, महाभारत आदि के पद और वाक्य की तरह । अकारादि वर्गों के समूह को पद कहते हैं, जैसे वेद, ज्ञान, आत्मा इत्यादि पद हैं । पदों के समूह को वाक्य कहते हैं, जैसे वेद पौरुषेय हैं, आत्मा ज्ञानवान् है, इत्यादि वाक्य कहलाते हैं । तात्पर्य यह है कि पद और वाक्य की रचना पुरुष के द्वारा ही होती है । इसलिए पद और वाक्य अपौरुषेय न होकर पौरुषेय ही हैं । इसी प्रकार अकारादि वर्ण भी अपौरुषेय नहीं है ।