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तृतीय परिच्छेद : सूत्र ९६-९९
१३७ वचनों को सुनकर हम लोगों को जो पदार्थों का ज्ञान होता है वह आगम कहलाता है । यहाँ आदि पद के द्वारा आगम प्रमाण में अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत का संग्रह हो जाता है । यद्यपि श्रुत वचनरूप है और आगम प्रमाण ज्ञानरूप है, फिर भी कारण में कार्य का उपचार करके वचन को भी आगम प्रमाण मानने में कोई विरोध नहीं है । श्रुतरूप वचन ज्ञान का कारण है और ज्ञान उसका कार्य है । अतः यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके श्रुत को भी आगम प्रमाण मान लिया गया है । आगम के लक्षण में 'आप्तवचन' विशेषण के द्वारा वेदापौरुषेयत्व का निरास किया गया है और 'अर्थज्ञान' विशेषण के द्वारा बौद्धाभिमत अन्यापोह ज्ञान का निराकरण किया गया है । अर्थ के ज्ञान का नाम आगम है, अन्यापोह का ज्ञान आगम नहीं है।
वेदापौरुषेयत्व विचार ___ मीमांसकों का मत है कि वेद अपौरुषेय हैं, वेद किसी पुरुष विशेष की रचना नहीं हैं, किन्तु उनकी परम्परा अनादिकाल से इसी रूप में चली आ रही है । मीमांसादर्शन में ऐसा कोई आप्त पुरुष या सर्वज्ञ नहीं है जिसने वेदों की रचना की हो । अन्य कोई सामान्य पुरुष भी वेदों का रचयिता नहीं हो सकता है । क्योंकि रथ्यापुरुष के वचनों की तरह उसके वचनों को प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है । इसलिए वेदों को अपौरुषेय मानना मीमांसकों की विवशता है। पूर्वपक्ष· · वेद चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और साम्यवेद । ये चारों वेद अस्मर्यमाणकर्तृक होने से अपौरुषेय हैं । यदि वेदों का कोई कर्ता होता तो उसका स्मरण अवश्य होता । परन्तु वेदों के कर्ता का स्मरण होता ही नहीं है । इससे यही सिद्ध होता है कि वेदों का कोई कर्ता नहीं है । अनादि काल से वेदों का अध्ययन गुरु के द्वारा अध्ययन पूर्वक ही चला आया है । ऐसा नहीं है कि पहले किसी ने वेदों की रचना की हो और फिर उसका अध्ययन कराया हो । इस विषय में मीमांसाश्लोकवार्तिक में कहा गया