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तृतीय परिच्छेद : सूत्र ६३-६८
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परिणामी शब्दः कृतकत्वात्, य एवं स एवं दृष्टः यथा घटः, कृतकश्चायं तस्मात् परिणामी । यस्तु न परिणामी स न कृतकः यथा वन्ध्यास्तनन्धयः, कृतकश्चायं तस्मात् परिणामीति ॥ ६५ ॥ शब्द परिणामी है, कृतक होने से । जो कृतक होता है वह परिणामी होता है, जैसे घट । यह अन्वय दृष्टान्त है । यतः शब्द कृतक है अत: वह परिणामी है । जो परिणामी नहीं है वह कृतक भी नहीं होता है । जैसे वन्ध्या का पुत्र । यह व्यतिरेक दृष्टान्त है । यतः शब्द कृतक है अत: वह परिणामी है । यहाँ शब्द में कृतकत्व हेतु के द्वारा परिणामित्व सिद्ध किया गया है । कृतकत्व हेतु परिणामी साध्य का व्याप्य है । अतः यह विधिसाधक अविरुद्धव्याप्योपलब्धि का उदाहरण है । यहाँ परिणामी साध्य और कृतकत्व हेतु के सम्बन्ध को अन्वय और व्यतिरेक दोनों दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया
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कार्य हेतु का उदाहरण
अस्त्यंत्र देहिनि बुद्धिर्व्याहारादेः ॥ ६६ ॥
इस प्राणी में बुद्धि है, क्योंकि इसमें व्याहार, व्यापार आदि पाया जाता है । व्याहार ( वचन बोलना.) व्यापार ( हस्तादि की चेष्टा ) आदि को देख कर प्राणी में बुद्धि का अनुमान किया जाता है । बुद्धि परोक्ष है । अतः बुद्धि के कार्य को देखकर बुद्धि का अनुमान होता है । बुद्धि कारण है और व्याहार आदि उसके कार्य हैं । यहाँ कार्य को देखकर उसके कारण का अनुमान किया गया है । यह विधिसाधक अविरुद्धकार्योपलब्धि का उदाहरण है ।
कारण हेतु का उदाहरण
अस्त्यत्र छाया छत्रात् ॥ ६७॥
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यहाँ छाया है, छत्र के होने से । छत्र छाया का कारण है । यहाँ छत्र (कारण) को देखकर छाया ( कार्य ) का अनुमान किया गया है । यह विधिसाधक अविरुद्धकारणोपलब्धि का उदाहरण है ।
पूर्वचर हेतु का उदाहरण
उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात् ॥ ६८ ॥