SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन . अतः सोने के पहले जो ज्ञान था वही जागने के समय के ज्ञान का हेतु होता. है । यहाँ भी काल के व्यवधान में कार्यकारण सम्बन्ध माना गया है । काल के व्यवधान में कार्यकारण सम्बन्ध मानना एक बड़ी ही विचित्र और गलत बात है । बौद्धों की यह बात भी सर्वथा गलत है कि सुप्तावस्था में ज्ञान नहीं रहता है। यहाँ कोई कह सकता है कि भावी मरण और अरिष्ट में तथा अतीत जाग्रबोध और उद्बोध में कार्यकारणभाव क्यों नहीं बन सकता है ? इसका उत्तर देने के लिए सूत्र कहते हैं तदव्यापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ॥६३॥ दो वस्तुओं में कार्यकारणभाव का होना कारण के व्यापार के आश्रित है । कारण का व्यापार होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है । ऐसा संभव नहीं है कि कारण का व्यापार न हो तो भी कार्य उत्पन्न हो जाय । यहाँ तो मरणरूप कारण के व्यापार के अभाव में ही अरिष्टरूप कार्य सम्पन्न हो जाता है । इसी प्रकार जाग्रद्बोधरूप कारण के व्यापार के बिना ही उद्बोधरूप कार्य हो जाता है । ऐसा मानना सर्वथा प्रतीति विरुद्ध है । अतः दो वस्तुओं में कार्यकारणभाव तभी बन सकता है जब पहले कारण का व्यापार हो और उसके बाद कार्य की उत्पत्ति हो । सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात् सहोत्पादाच्च ॥६४॥ ___ सहचारी साध्य और साधन परस्पर का परिहार करके रहते हैं । इसलिए उनमें तादत्म्य नहीं होता है । जैसे घट और पट परस्पर का परिहार करके रहते हैं । इसलिए उनमें तादात्म्य सम्बन्ध की कल्पना नहीं की जा सकती है । रस और रूप परस्पर का परिहार करके रहते हैं । इसलिए उनमें तादात्म्य सम्बन्ध नहीं हो सकता है । परस्पर का परिहार करके रहने का मतलब है कि रस रूप नहीं है और रूप रस नहीं है । दोनों का पृथक् अस्तित्व है । रस और रूप की उत्पत्ति एक साथ होती है । अतः इन दोनों में तदुत्पत्ति सम्बन्ध भी नहीं बन सकता है । जैसे एक साथ उत्पन्न होने वाले गाय के दोनों सीगों में तदुत्पत्ति सम्बन्ध की कल्पना नहीं की जा सकती है । तदुत्पत्ति सम्बन्ध का नाम ही कार्यकारण सम्बन्ध है । अब विधिसाधक अविरुद्धोपलब्धि के छह भेदों को उदाहरण द्वारा समझाते हैं । व्याप्य हेतु का उदाहरण इस प्रकार है
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy