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तृतीय परिच्छेद : सूत्र ६०-६२ द्वारा प्रतिबन्धित न हो और जहाँ सहकारी कारणों की विकलता न हो वहाँ कारण कार्य को अवश्य उत्पन्न करता है । ____ अब यहाँ यह बतलाना है कि पूर्वचर और उत्तरचर हेतुओं में साध्य के साथ तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वे अपने साध्य के गमक होते हैं । इसी बात को निम्नलिखित सूत्र में बतलाया गया हैन च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ॥६१॥ ____ जो साध्य और साधन पूर्वकालवर्ती और उत्तरकालवर्ती हैं उनमें न तो तादात्म्य सम्बन्ध होता है और न तदुत्पत्ति सम्बन्ध होता है । क्योंकि काल के व्यवधान में ये दोनों सम्बन्ध नहीं होते हैं।
शिंशपा और वृक्ष में तादात्म्य सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध एक कालवर्ती वस्तुओं में ही होता है । अग्नि और धूम में तदुत्पत्ति सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध अनन्तर कालवर्ती वस्तुओं में ही होता है । ऐसा नहीं है कि प्रात:काल अग्नि हो और सायंकाल धूम हो । निष्कर्ष यह है कि पूर्वचर हेतु और उत्तरचर हेतु का साध्य के साथ काल का व्यवधान होता है । फिर भी ये हेतु अपने साध्य का ज्ञान कराते ही हैं । - बौद्ध काल के व्यवधान में भी कार्यकारण सम्बन्ध मानते हैं । इस बात का निराकरण करने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैंभाव्यतीतयोर्मरणजाग्रबोधयोरपि नारिष्टोद्बोधौ प्रति हेतुत्वम् ॥६२॥
भावी मरण और अतीत जाग्रबोध अरिष्ट और उद्बोध के प्रति हेतु नहीं होते हैं । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- बौद्ध मानते हैं कि आगे होने वाला मरण आज होने वाले अरिष्ट ( अपशकुन ) का हेतु होता है । कितनी विचित्र बात है कि एक वर्ष बाद होने वाला मरण एक वर्ष पहले हुए अरिष्ट का हेतु होता है । यहाँ काल का व्यवधान तो है ही, इसके साथ यह भी विचित्रता है कि कार्य पहले हो गया और उसका कारण बहुत समय बाद अस्तित्व में आयेगा । - इसी प्रकार बौद्धों की एक मान्यता यह भी है कि अतीत जाग्रद्बोध ( सोने से पहले का ज्ञान ) उद्बोध ( प्रात:काल जागने के समय का ज्ञान ) का हेतु होता है । बौद्ध मानते हैं सुप्तावस्था में ज्ञान नहीं रहता है ।