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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
विधिसाधक अविरुद्धोपलब्धि के व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर के भेद से छह भेद हैं । यहाँ अविरुद्धव्याप्योपलब्धि, अविरुद्धकार्योपलब्धि इत्यादि प्रकार से छह नाम समझ लेना चाहिए ।
यहाँ बौद्धों की आशंका है कि कार्य से कारण का अनुमान करना तो ठीक है किन्तु कारण के द्वारा कार्य का अनुमान नहीं किया जा सकता है । क्योंकि कारण का कार्य के साथ अविनाभाव नहीं है । कोई भी यह नहीं कह सकता है कि जहाँ कारण है वहाँ कार्य अवश्य होगा ।इस आशंका के उत्तर में आचार्य सूत्र कहते हैंरसादेकसामग्रयनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किञ्चित् कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्धकारणान्तरावैकल्ये ॥६०॥
आस्वाद्यमान रससे उसकी एक सामग्री ( उत्पादक सामग्री ) का अनुमान किया जाता है और उससे रूप का अनुमान होता है । ऐसा मानने वाले बौद्धों को कोई कारण हेतु इष्ट ही है, जिसमें सामर्थ्य का प्रतिबन्ध न हो और कारणान्तरों की विकलता न हो। '
इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-रात्रि के अन्धकार में कोई व्यक्ति आम्रफल का मीठा रस चख रहा है । इससे वह मीठे रस की जनक सामग्री का अनुमान करता है । वह सोचता है कि यह मीठा रस पूर्व रस
और पूर्व रूप से उत्पन्न हुआ है । पूर्व रस और पूर्व रूप मीठे रस की जनक सामग्री है । तदनन्तर वह अनुमान करता है कि इस फल का रूप पीला होना चाहिए । क्योंकि पूर्व रूपं मीठे रस की उत्पत्ति में तभी सहकारी कारण होता है जब उसने पहले अपने पीत रूप को उत्पन्न कर दिया हो । तात्पर्य यह है कि मीठे रस की उत्पत्ति में पूर्व रस उपादान कारण है और पूर्व रूप सहकारी कारण है । इसी प्रकार पीले रूप की उत्पत्ति में पूर्व रूप उपादान कारण है और पूर्व रस सहकारी कारण है । अतः पूर्व रूपक्षण सजातीय उत्तर रूपक्षण को उत्पन्न करके ही विजातीय उत्तर रसक्षण की उत्पत्ति में सहकारी होता है । इस प्रकार यहाँ मीठे रस की जनक सामग्री के अनुमान से पीले रूप का अनुमान किया गया है जो कारण से कार्य का अनुमान है और बौद्धों को इष्ट है । इतनी बात अवश्य है कि प्रत्येक कारण से कार्य का अनुमान नहीं होता है, किन्तु जहाँ कारण की सामर्थ्य मन्त्रादि