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________________ तृतीय परिच्छेद : सूत्र ५२-५९ तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् ॥ ५६ ॥ ज्ञानरूप मुख्य अनुमान में हेतु होने के कारण स्वार्थानुमान के विषय को परामर्श करने वाले वचनों को भी उपचार से परार्थानुमान कहा गया I है । अर्थात् वचन प्रयोग के बिना पर को परार्थानुमान नहीं हो सकता है । अत: वहाँ वचन का प्रयोग आवश्यक है । वचन के प्रयोग से ही पर को ज्ञानात्मक अनुमान उत्पन्न होता है । यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके वचन को परार्थानुमान कह दिया है । वास्तव में वचन अनुमान नहीं हैं, किन्तु अनुमान के कारण अवश्य हैं । १२३ हेतु के भेद सहेतुर्द्वधा उपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ॥ ५७ ॥ पहले ( सूत्र संख्या १५ में ) जिस हेतु का लक्षण बतला आये हैं वह हेतु उपलब्धि और अनुपलब्धि के भेद से दो प्रकार का है । उपलब्धि और अनुपलब्धि हेतु की विशेषता उपलब्धिर्विधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ॥ ५८ ॥ उपलब्धि विधिसाधक और प्रतिषेधसाधक दोनों होती है । इसी प्रकार अनुपलब्धि भी विधिसाधक और प्रतिषेधसाधक दोनों होती है । विधिसाधक का मतलब है - किसी वस्तु की सत्ता को सिद्ध करने वाली और प्रतिषेधसाधक का मतलब है - किसी वस्तु की असत्ता को सिद्ध करने वाली । कुछ लोग मानते हैं कि उपलब्धि केवल विधिसाधक है तथा अनुपलब्धि केवल प्रतिषेधसाधक है । किन्तु ऐसा है नहीं । यहाँ बतलाया गया है कि उपलब्धि और अनुपलब्धि दोनों ही विधिसाधक भी हैं और प्रतिषेधसाधक भी । उपलब्धि के दो भेद हैं- अविरुद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि । इनमें से अविरुद्धोपलब्धि विधिसाधक है और विरुद्धोपलब्धि प्रतिषेधसाधक है । विधिसाधक अविरुद्धोपलब्धि के भेद अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा व्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचरभेदात् ॥५९॥
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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