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________________ १२२ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन. है, ऐसा कहना निगमन है । अग्नि के अनुमानकाल में पहले ही यह बतला दिया जाता है कि पर्वत अग्निमान् है । इसी का नाम प्रतिज्ञा है । निगमन में उसी बात को फिर दुहराया जाता है । T अनुमान के भेद तदनुमानं द्वेधा ॥ ५२ ॥ स्वार्थपरार्थभेदात् ॥ ५३ ॥ जिस अनुमान का स्वरूप पहले बतलाया गया है उसके दो भेद हैंस्वार्थानुमान और परार्थानुमान । अपने लिए जो अनुमान किया जाता है वह स्वार्थानुमान है और पर के लिए जो अनुमान होता है वह परार्थानुमान है । ऐसा इन शब्दों का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ है । स्वार्थानुमान का लक्षण स्वार्थमुक्तलक्षणम्॥५४॥ स्वार्थनुमान का लक्षण पहले बतला चुके हैं । अर्थात् पहले सूत्र संख्या १४ में बतलाया गया है कि साधन से होने वाले साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं । यही स्वार्थानुमान है । 1 परार्थानुमान का लक्षण परार्थं तु तदर्थपरामर्शिवचनाज्जातम् ॥ ५५ ॥ स्वार्थानुमान के विषयभूत अर्थ का परामर्श करने वाले वचनों से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं । स्वार्थानुमान का विषय है - साध्य और साधन । परार्थानुमान में भी पर को साधन से साध्य का ज्ञान कराया जाता है, किन्तु वह साध्य और साधन का परामर्श (विचार) करने वाले वचनों को बोलकर कराया जाता है । तात्पर्य यह है कि स्वार्थानुमान स्वयं के लिए होता है । इसलिए उसमें वचन प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती है । किन्तु परार्थानुमान पर को समझाने के लिए किया जाता है, इसलिए वहाँ वचनों का प्रयोग आवश्यक है । यहाँ एक शंका हो सकती है कि अनुमान तो ज्ञानरूप होता है । तब परार्थानुमान को वचनरूप क्यों कहा ? इस शंका का उत्तर देने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैं -
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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