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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
अब यह बतलाते हैं कि उपनय और निगमन भी अनुमान के अंग नहीं हैं
न च ते तदङ्गे साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययोर्वचनादेवासंशयात् ॥ ४४॥ . उपनय और निगमन भी अनुमान के अंग नहीं हैं । क्योंकि साध्यधर्मी में हेतु और साध्य के वचन से ही किसी प्रकार का संशय नहीं रहता है । जब हम पक्ष में अविनाभावी हेतु और साध्य का प्रयोग करते हैं तो इतने मात्र से ही सब प्रकार का सन्देह दूर हो जाता है ।
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अन्त में आचार्य बौद्धों के लिए कहते हैं
समर्थनं वा वरं हेतुरूपमनुमानावयवो वा अस्तु साध्ये तदुपयोगात् ॥ ४५॥
समर्थन को ही हेतु का श्रेष्ठ रूप (लक्षण) अथवा अनुमान का अंग मान लीजिए । क्योंकि साध्य को सिद्ध करने में उसी का उपयोग होता है: । समर्थन का मतलब है - हेतु में असिद्ध आदि दोषों का परिहार करके अपने साध्य के साथ उसका अविनाभाव सिद्ध करना । बौद्ध हेतु का प्रयोग करने के बाद उसका समर्थन करते हैं । इसलिए यहाँ बौद्धों से ऐसा कहा है कि समर्थन कोही तुका रूप तथा अनुमान का अवयव मान लीजिए ।
जैनन्याय की दृष्टि में उदाहरण, उपनय और निगमन ये तीनों अनुमान के अंग नहीं हैं । इतना अवश्य है कि न्यायशास्त्र में जो व्युत्पन्न नहीं हैं। उन्हें समझाने के लिए उदाहरण आदि का प्रयोग किया जा सकता है । इसी बात को निम्नलिखित सूत्र में बतलाया गया हैबालव्युत्पत्यर्थं तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासौ न वादेऽनुपयोगात् ॥ ४६॥
जो न्यायशास्त्र में बाल ( अव्युत्पन्न ) हैं उन्हें ज्ञान कराने के लिए उदाहरण, उपनय और निगमन का प्रयोग शास्त्र ( वीतरागकथा) में ही स्वीकार किया गया है । किन्तु वाद ( विजिगीषुकथा ) में उनका प्रयोग अनुपयोगी है । क्योंकि वाद व्युत्पन्न व्यक्तियों में ही होता है । अत: उनके लिए पक्ष और हेतु का प्रयोग ही पर्याप्त है । उनके लिए उदाहरण आदि के प्रयोग की कोई आवश्यकता ही नहीं है ।
दृष्टान्त के भेद दृष्टान्तो द्वेधा अन्वयव्यतिरेकभेदात् ॥ ४७ ॥