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________________ तृतीय परिच्छेद : सूत्र ३७-४३ का निश्चय हो जाता है । इसके लिए उदाहरण के प्रयोग की कोई आवश्यकता नहीं है । इसी विषय में और भी तर्क देते हुए सूत्र कहते हैंव्यक्तिरूपं च निदर्शनं सामान्येन तु व्याप्तिः तत्रापि तद्विप्रतिपत्तावनवस्थानं स्यात् दृष्टान्तान्तरापेक्षणात् ॥ ४०॥ ११९ उदाहरण व्यक्तिरूप होता है और व्याप्ति सकल देश और सकलकालवर्ती साध्य साधन को विषय करने के कारण सामान्यरूप होती है । धूम से अग्नि को सिद्ध करने में महानसादि दृष्टान्त व्यक्तिरूप होता है । अतः व्यक्तिरूप दृष्टान्त साध्य-साधन में सामान्यरूप व्याप्ति का निश्चय कैसे करा सकता है ? क्योंकि व्यक्तिरूप दृष्टान्त में भी व्याप्ति के विषय में विवाद होने पर अन्य दृष्टान्त की अपेक्षा होगी और उसमें भी अन्य दृष्टान्त की अपेक्षा होगी ? इस प्रकार अनवस्था दोष का समागम होगा । इसलिए व्यक्तिरूप उदाहरण साध्य-साधन में अविनाभाव का निश्चय नहीं करा सकता है । तृतीय विकल्प का निराकरण करने के लिए सूत्र कहते हैंनापि व्याप्तिस्मरणार्थं तथाविधहेतुप्रयोगादेव व्याप्तिस्मृतेः ॥ ४१ ॥ व्याप्ति के स्मरण कराने के लिए भी उदाहरण का प्रयोग अनुपयोगी है। क्योंकि साध्य - साधन में जो व्याति है उसका स्मरण तो साध्य के साथ अविनाभावी हेतु के प्रयोग से ही हो जाता है । केवल उदाहरण के प्रयोग से लाभ के स्थान में हानि की ही संभावना रहती है, इसे बतलाने के लिए सूत्र कहते हैं तत्परमभिधीयमानं साध्यधर्मिणि साध्यसाधने सन्देहयति ॥ ४२ ॥ कुतोऽन्यथोपनयनिगमने ॥ ४३ ॥ केवल उदाहरण का प्रयोग साध्यधर्मी ( पक्ष ) में साध्य को सिद्ध करने में सन्देह उत्पन्न करता है । यदि ऐसा न होता तो उदाहरण के बाद उपनय और निगमन के कथन की क्या आवश्यकता है । तात्पर्य यह है कि उक्त सन्देह को दूर करने के लिए ही उदाहरण के बाद उपनय और निगमन का प्रयोग किया जाता है ।
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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