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तृतीय परिच्छेद : सूत्र ३२-३६
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करने के लिए पक्ष का वचन आवश्यक है । इसी बात को उदाहरण द्वारा समझाते हैंसाध्यधर्मिणि साधनधर्मावबोधनाय पक्षधर्मोपसंहारवत् ॥ ३५॥
जैसे साध्यधर्मी ( पर्वत ) में साधनधर्म ( धूम ) के ज्ञान को कराने के लिए पक्षधर्म का उपसंहार किया जाता है । यहाँ पक्ष धर्म के उपसंहार का मतलब उपनय के प्रयोग से है । तात्पर्य यह है कि अनुमान के अंग या अवयव पाँच होते हैं-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन । पर्वत में अग्नि है, यह प्रतिज्ञा है । धूमवान् होने से, यह हेतु है । जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि होती है, जैसे महानस, यह उदाहरण है । पर्वत में धूम है, यह उपनय है । इसलिए पर्वत में आग है, यह निगमन है । पर्वत में धूम है, ऐसा उपसंहार हम इसलिए करते हैं जिससे पर्वत में धूम होने की पुष्टि हो जावे । अन्यथा पर्वत धूमवान् है ऐसा हम पहले ही कह चुके हैं । फिर उपनय के कथन की क्या आवश्यकता है ? इसी प्रकार यदि हम पक्ष का प्रयोग नहीं करेंगे तो मन्दबुद्धिवालों को साध्यधर्म के आधार का ठीक से ज्ञान नहीं होगा । शास्त्र में प्रतिज्ञा का प्रयोग देखा ही जाता है, जैसे 'अग्निरत्र धूमात्'-यहाँ अग्नि है, धूम होने से । इसी प्रकार वाद के काल में भी पक्ष का प्रयोग मानना आवश्यक है । - बौद्धों का उपहास करते हुए आचार्य इसी बात का समर्थन करते हैंको वा त्रिधा हेतुमुक्त्वा समर्थयमानो वा न पक्षयति ॥३६॥
ऐसा कौनसा प्रामाणिक पुरुष है जो कार्य, स्वभाव और अनुपलब्धि के भेद से अथवा पक्षधर्मत्वादि तीन रूपों के भेद से हेतु को तीन प्रकार का बतलाकर और उसका समर्थन करते हुए भी पक्ष का प्रयोग न करे। . ___ बौद्धन्याय में हेतु तीन प्रकार का है । बौद्ध साध्य की सिद्धि के लिए पहले हेतु का प्रयोग करता है और फिर उसका समर्थन करता है । समर्थन करने का मतलब है हेतु को निर्दोष सिद्ध करना । यहाँ हम बौद्धों से कह सकते हैं कि हेतु का प्रयोग न करके केवल उसका समर्थन कर दीजिए । इतने से ही काम चल जायेगा । अतः हेतु का वचन व्यर्थ है । इस पर बौद्ध का उत्तर यह होगा कि हेतु के कथन के बिना हम किसका समर्थन करेंगे ? पहले हेतु का वचन आवश्यक है तभी उसका समर्थन हो सकता