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तृतीय परिच्छेद : सूत्र १९-२३
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अर्थ को विपर्यस्त कहते हैं । और जिस अर्थ का स्वरूप ठीक से निश्चित न हो वह अर्थ अव्युत्पन्न कहलाता है । जैसे मार्ग में जाते हुए व्यक्ति को तृणस्पर्श होने पर 'यह क्या है', ऐसा अनध्यवसायरूप ज्ञान होता है । ऐसे ज्ञान के विषयभूत अर्थ को अव्युत्पन्न कहते हैं । निष्कर्ष यह है कि जो अर्थ सन्दिग्ध हो, विपर्यस्त हो और अव्युत्पन्न हो उसको सिद्ध करने के लिए साधन का प्रयोग किया जाता है ।
इष्ट और अबाधित विशेषण की सार्थकता अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः साध्यत्वं माभूदितीष्टाबाधितवचनम् ॥ २२ ॥
अनिष्ट और अध्यक्षादि ( प्रत्यक्षादि ) से बाधित अर्थ में साध्यत्व न हो जाय इस बात को बतलाने के लिए इष्ट और अबाधित विशेषण का प्रयोग किया गया है । जिस व्यक्ति को शब्द में नित्यत्व अनिष्ट है वह शब्द में नित्यत्व सिद्ध नहीं करेगा। साध्य को प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित नहीं होना चाहिए । जो साध्य प्रत्यक्षादि से बाधित है वह साध्य नहीं हो सकता है । साध्य में बाध्यत्व कई प्रकार से होता है । जैसे प्रत्यक्षबाधित, अनुमानबाधित, आगमबाधित, स्ववचनबाधित और लोकबाधित । शब्द में अ श्रावणत्व ( जो कान से न सुना जाय) सिद्ध करना प्रत्यक्षबाधित है । क्योंकि श्रावणप्रत्यक्ष से यह सिद्ध होता है कि शब्द श्रावण है, अश्रावण नहीं । अतः साध्य को इष्ट और अबाधित कहने से यह सिद्ध होता है कि जो अनिष्ट है और प्रत्यक्षादि से बाधित है वह साध्य नहीं हो सकता है ।
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साध्य के लक्षण में इष्ट विशेषण किसके लिए है और असिद्ध विशेषण किसके लिए है, इस बात को बतलाने के लिए सूत्र कहते हैंन चासिद्धवदिष्टं प्रतिवादिनः ॥ २३ ॥
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असिद्ध की तरह इष्ट विशेषण प्रतिवादी के लिए नहीं है । अर्थात् असिद्धविशेषण प्रतिवादी के लिए है और इष्ट विशेषण वादी के लिए है । वादी उसी को सिद्ध करता है जो उसे इष्ट होता है । इसी प्रकार साध्य उसीको बनाया जाता है जो प्रतिवादी को असिद्ध हो । वादी को तो वह सिद्ध होता है । इसीलिए वह प्रतिवादी के लिए असिद्ध साध्य की सिद्धि करता है ।