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________________ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन क्रमभावनियम होता है । जैसे अग्नि और धूम में क्रमभावनियम है । धूम कार्य है और अग्नि कारण है । जब हम धूम को देखकर अग्नि का अनु करते हैं तो यहाँ धूम और अग्नि में क्रमभावनियम रहता है । अग्नि से धूम उत्पन्न होता है । पहले अग्नि होती है फिर उससे धूम उत्पन्न होता है । यही इनमें क्रमभाव है । इस प्रकार पूर्वचर और उत्तरचर साधन और साध्य में तथा कार्य और कारण रूप साधन और साध्य में क्रमभावनियमरूप अविनाभाव होता है । अविनाभाव का निर्णय कैसे होता है इसे बतलाने के लिए सूत्र कहते ११२ तर्कात् तन्निर्णयः ॥ १९॥ अविनाभाव का निर्णय तर्क प्रमाण से होता है । किस किस साधन और साध्य में अविनाभाव है इस बात का ज्ञान तर्क प्रमाण द्वारा होता है । प्रत्यक्षादि अन्य किसी प्रमाण से अविनाभाव का निर्णय संभव नहीं है, इस बात को पहले बतला चुके हैं । साध्य का लक्षण इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम् ॥ २० ॥ इष्ट, अबाधित और असिद्ध को साध्य कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि जो वादी को इष्ट है वही साध्य होता है, अनिष्ट नहीं । इसी प्रकार जो प्रत्यक्षादि किसी प्रमाण से बाधित न हो वह साध्य होता है । तथा जो अभी तक सिद्ध न हो वह साध्य होता है । सिद्ध वस्तु को साध्य नहीं बनाया जाता है, किन्तु असिद्ध को सिद्ध किया जाता है । इस प्रकार साध्य के लक्षण में इष्ट, अबाधित और असिद्ध ये तीन विशेषण दिये गये हैं । 1 असिद्ध विशेषण की सार्थकता सन्दिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्यादित्यंसिद्धपदम् ॥ २१ ॥ सन्दिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न अर्थों में साध्यत्व बतलाने के लिए असिद्ध पद ( विशेषण ) दिया गया है । यह स्थाणु है अथवा पुरुष है, इस प्रकार चलित प्रतिपत्ति ( दोलायमान ज्ञान ) के विषयभूत अर्थ को सन्दिग्ध कहते हैं । शुक्तिका में रजत का ज्ञान करानेवाले विपर्यय ज्ञान के विषयभूत
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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