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________________ १११ तृतीय परिच्छेद : सूत्र १६-१८ अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः ॥ इस प्रकार नैयायिकों के द्वारा अभिमत पाञ्चरूप्य हेतु का लक्षण सिद्ध नहीं होता है । अविनाभाव का लक्षण सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः ॥१६॥ सहभावनियम और क्रमभावनियम को अविनाभाव कहते हैं । कुछ साधन और साध्यों में सहभावनियम होता है और कुछ में क्रमभावनियम होता है । सहभाव कहाँ होता है इसे बतलाने के लिए सूत्र कहते हैंसहचारिणों: व्याप्यव्यापकयोश्च सहभावः ॥१७॥ सहभाव का अर्थ है साथ साथ रहना । सहभावनियम उस साधन और साध्य में होता है जो सदा साथ साथ रहते हैं । जैसे रूप और रस सहचारी हैं । जब हम आमके पीले रूप को देखकर मीठे रस का अनुमान करते हैं तो यहाँ रूप और रस में सहभावनियम पाया जाता है । इसी प्रकार सहभावनियम उस साधन और साध्य में भी होता है जो व्याप्य और व्यापक हैं । जैसे शिंशपा ( शीशम ) और वृक्ष । शिशपा व्याप्य है और वृक्ष व्यापक है । जब हम शिंशपा को देखकर उसमें वृक्ष का अनुमान करते हैं तो यहाँ शिंशपा और वृक्ष में सहभावनियम रहता है । इस प्रकार सहचारी साधन और साध्य में तथा व्याप्य और व्यापक रूप साधन और साध्य में सहभावनियमरूप अविनाभाव होता है । क्रमभावनियम कहाँ होता है इसे बतलाने के लिए सूत्र कहते हैंपूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः ॥१८॥ क्रमभाव का अर्थ है क्रम से होना । क्रमभावनियम उस साधन और साध्य में होता है जो पूर्वचर और उत्तरचर हैं । जैसे कृत्तिकोदय और शकटोदय । जब हम कृत्तिका नक्षत्र के उदय को देखकर शकट नक्षत्र के ::. उदय का अनुमान करते हैं तो यहाँ कृत्तिकोदय और शकटोदय में . क्रमभावनियम पाया जाता है । इसी प्रकार कार्य और कारण में भी
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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