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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन
से, जल की तरह । यहाँ द्रव्यत्व हेतु अग्नि में अनुष्णत्व को सिद्ध नहीं कर सकता है । क्योंकि स्पार्शन प्रत्यक्ष से अग्नि में अनुष्णत्व बाधित हो जाता है । अत: यह आवश्यक है कि हेतु का विषय अबाधित हो, तभी वह हेतु साध्य की सिद्धि करता है । असत्प्रतिपक्षत्व का तात्पर्य यह है कि इस हेतु का जो साध्य है उसके प्रतिपक्षभूत ( विरोधी ) साध्य को सिद्ध करने वाला कोई दूसरा हेतु नहीं होना चाहिए । जैसे एक व्यक्ति ने कहा'अनित्यः शब्दः नित्यधर्मानुपलब्धेः घटवत् ' - शब्द अनित्य है, नित्य धर्म की अनुपलब्धि होने से, घट की तरह । ऐसा सुनकर दूसरा व्यक्ति कहता है—'नित्यः शब्दः अनित्यधर्मानुपलब्धेः ' - शब्द नित्य है, अनित्य धर्म की अनुपलब्धि होने से, आत्मा की तरह । यहाँ नित्यधर्मानुपलब्धिरूप हेतु शब्द में अनित्यत्व सिद्ध नहीं कर सकता है, क्योंकि इसका प्रतिपक्षभूत अनित्यधर्मानुपलब्धिरूप हेतु विद्यमान है । अत: यह आवश्यक है कि एक हेतु का प्रतिपक्षभूत कोई दूसरा हेतु न हो, तभी वह हेतु साध्य की सिद्धि कर सकता है । हेतु के पाँच रूप होते हैं और इन रूपों के अभाव में क्रमशः असिद्ध, विरूद्ध, अनैकान्तिक, कालात्यापदिष्ट और प्रकरणसम ये पाँच हेत्वाभास होते हैं । इसलिए जिस हेतु में उक्त पाँचों रूप पाये जाते हैं वही अपने साध्य का साधक होता है । ऐसा नैयायिकों का मत है ।
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नैयायिकों का उक्त मत सर्वथा असमीचीन है । पहले बौद्धाभिमत त्रैरूप्य का निराकरण हो चुका है । यहाँ विचारणीय बात यह है कि जब त्रैरूप्य हेतु का लक्षण सिद्ध नहीं होता है तब पाञ्चरूप्य हेतु का लक्षण कैसे हो सकता है । जैसे जिस व्यक्ति के पास १० रुपया नहीं हैं उसके पास १०० रुपया होने की संभावना कैसे की जा सकती है । अतः त्रैरूप्य के निराकरण से ही पाञ्चरूप्य का भी निराकरण हो जाता है । साध्य के साथ अविनाभाव को छोड़कर अबाधितविषयत्व आदि हेतु का अन्य कोई रूप संभव ही नहीं है । यथार्थ बात यह है कि अविनाभाव ही हेतु का एकमात्र निर्दोष लक्षण है, त्रैरूप्य और पाञ्चरूप्य नहीं । जहाँ अविनाभाव है वहाँ पाञ्चरूप्य के न होने पर भी हेतु अपने साध्य की सिद्धि करता है । अतः अविनाभाव को ही हेतु का निर्दोष लक्षण मानना चाहिए । पाञ्चरूप्य की कल्पना करने से क्या लाभ है । कहा भी है
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