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तृतीय परिच्छेद : सूत्र १५
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वक्तृत्वात् रथ्यापुरुषवत्' । बुद्ध असर्वज्ञ हैं, वक्ता होने से, रथ्यापुरुष ( सामान्य पुरुष ) की तरह । इस अनुमान में वक्तृत्व हेतु हेत्वाभास होने के कारण बुद्ध में असर्वज्ञत्व सिद्ध नहीं कर पाता है । बौद्ध भी बुद्ध को असर्वज्ञ नहीं मानते हैं । वक्तृत्व हेतु में पक्षधर्मत्वादि तीनों रूप विद्यमान होने पर भी यह हेतु बुद्ध में असर्वज्ञत्व सिद्ध नहीं कर सकता है । क्योंकि इसका साध्य के साथ अविनाभाव नहीं है । इसके विपरीत जिस हेतु में साध्य के साथ अविनाभाव है, किन्तु पक्षधर्मत्वादि तीन रूप नहीं हैं वह भी अपने साध्य का गमक होता है । जैसे 'उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात्'एक मुहूर्त के बाद शकट नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि इस समय कृत्तिका नक्षत्र का उदय है । यहाँ कृत्तिकोदय रूप हेतु में पक्षधर्मत्वादि तीन रूप नहीं रहते हैं, फिर भी यह हेतु अपने साध्य की सिद्धि करता है । उपर्युक्त कथन का निष्कर्ष यह है कि जिस हेतु का अपने साध्य के साथ अविनाभाव है उसमें तीन रूप मानने से क्या लाभ है ? और जिस हेतु का साध्य के . साथ अविनाभाव नहीं है उसमें भी तीन रूप होने का कोई लाभ नहीं है । अर्थात् दोनों ही स्थितियों में पक्षधर्मत्वादि तीन रूपों का होना व्यर्थ ही है । कहा भी है- अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्रत्रयेण किम् ॥
असिद्ध आदि तीन हेत्वाभासों के निराकरण के लिए भी पक्षधर्मत्वादि तीन रूपों का मानना आवश्यक नहीं है । क्योंकि असिद्ध आदि तीन हेत्वाभासों का निराकरण तो साध्य-साधन में अविनाभाव होने से ही हो जाता है । इस प्रकार बौद्धों के द्वारा अभिमत त्रैरूप्य हेतु का लक्षण सिद्ध नहीं होता है ।
पाञ्चरूप्य निरास
नैयायिक पाञ्चरूप्य को हेतु का लक्षण मानते हैं । वे कहते हैं कि हेतु के पाँच रूप होते हैं जो इस प्रकार हैं- पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व, अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व । इनमें से प्रथम तीन रूप तो वही हैं जो बौद्धों ने माने हैं । यहाँ दो रूप नये हैं । अबाधितविषयत्व का मतलब यह है कि हेतु का जो विषय ( साध्य ) है उसे किसी प्रमाण से बाधित नहीं होना चाहिए । कोई कहता है कि अग्नि अनुष्ण है, द्रव्य होने