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________________ १०६ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन .. बाधा नहीं आती है । इस प्राणी में धर्मविशेष ( पुण्य ) का सद्भाव है, क्योंकि इसमें विशिष्ट सुखादि पाया जाता है । यहाँ अतीन्द्रिय साध्यसाधन में व्याप्ति का ज्ञान आगम से होता है । सूर्य में गमनशक्ति का सम्बन्ध है, अन्यथा उसमें गतिमत्व नहीं बन सकता है । यहाँ अतीन्द्रिय साध्य-साधन में व्याप्ति का ज्ञान अनुमान से होता है । तात्पर्य यह है कि उपलंभ और अनुपलंभ निमित्तक व्याप्ति का ज्ञान केवल प्रत्यक्ष से ही नहीं होता है किन्तु अनुमान और आगम से भी होता है । उपलंभ और अनुषलंभ तर्क के कारण हैं । इसके अतिरिक्त स्मरण और प्रत्यभिज्ञान भी इसके कारण हैं। यह व्याप्तिज्ञान किस प्रकार होता है इसे बतलाने के लिए सूत्र कहते हैंइदमस्मिन् सत्येव भवति असति तु न भवत्येवेति ॥१२॥ साधन साध्य के होने पर ही होता है । इसे तथोपपत्ति कहते हैं । तथा साध्य के अभाव में साधन कभी नहीं होता है । इसे अन्यथानुपपत्ति कहते हैं । इन दोनों प्रकारों से व्याप्तिज्ञान होता है । इसी बात को उदाहरण द्वारा बतलाते हैं यथाग्नावेव धूमस्तस्तदभावे न भवत्येवेति च ॥१३॥ अग्नि के होने पर ही धूम होता है और अग्नि के अभाव में धूम कभी नहीं होता है । यहाँ अग्नि साध्य है और धूम साधन है तथा इन दोनों में व्याप्ति पाई जाती है । इस व्याप्ति का ज्ञान तर्क प्रमाण द्वारा ही होता है, अन्य किसी प्रमाण से नहीं । यहाँ ध्यान देने योग्य एक विशेष बात यह है कि जैनदर्शन ने ही व्याप्ति के ज्ञान के लिए तर्क प्रमाण को माना है तथा अन्य किसी दर्शन ने व्याप्तिग्राहक तर्क प्रमाण को नहीं माना है । . तर्कप्रामाण्य विचार यहाँ बौद्धों का कथन है कि तर्क तो प्रमाण ही नहीं है । तब तर्क के कारण और स्वरूप बतलाने से क्या लाभ है । वास्तव में तो दो ही प्रमाण हैं-प्रत्यक्ष और अनुमान । यहाँ हम बौद्धों से पूछना चाहते हैं कि तर्क अप्रमाण क्यों है-गृहीतग्राही होने से अथवा विसंवादी होने से ? इनमें से प्रथम पक्ष मानना ठीक नहीं है । यदि किसी अन्य प्रमाण से व्याप्ति का ग्रहण होता हो तो व्याप्तिग्राहक तर्क को गृहीतग्राही माना जा सकता है ।
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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