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________________ तृतीय परिच्छेद : सूत्र १०-११ १०५ नैयायिक का उक्त मत मीमांसक मत के निराकरण से ही निरस्त हो जाता है । जिस प्रकार एक बार घट को देखने के बाद पुन: उसी का दर्शन होने पर स एवायं घट:'-यह वही घट है, ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है, उसी प्रकार 'गोसदृशो गवयः'-गवय गाय के सदृश है, ऐसा ज्ञान भी प्रत्यभिज्ञान ही है । सादृश्यज्ञान को उपमान मानने पर 'गोविलक्षणो महिषः'-भैंस गाय से विलक्षण है, इस ज्ञान को कौनसा प्रमाण माना जायेगा ? न्यायसूत्र में उपमान का लक्षण इस प्रकार है प्रसिद्धार्थसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम् । अर्थात् प्रसिद्ध अर्थ गाय के साधर्म्य से 'यह गवय शब्द वाच्य है' ऐसा संज्ञा और संज्ञी के सम्बन्ध का जो ज्ञान होता है वह उपमान कहलाता है । तब प्रसिद्ध अर्थ के वैधर्म्य से जो ज्ञान होता है वह कौनसा प्रमाण कहलायेगा ? इसी प्रकार यह वृक्ष शब्द का वाच्य है, इत्यादि स्थलों में जो संज्ञा और संज्ञी के सम्बन्ध का ज्ञान होता है वह कौनसा प्रमाण होगा ? अतः सादृश्यज्ञान को पृथक् उपमान प्रमाण मानने वाले नैयायिकों को और भी अनेक प्रमाण मानना पड़ेंगे । हमारे ( जैनों के ) मत में तो ये सब ज्ञान प्रत्यभिज्ञान स्वरूप ही हैं । इस प्रकार यहाँ प्रत्यभिज्ञान में प्रामाण्य सिद्ध करने के साथ ही उपमान का प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भाव भी सिद्ध कर दिया गया है। तर्क का स्वरूप उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः ॥११॥ उपलंभ और अनुपलंभ के निमित्त से होने वाले व्याप्ति के ज्ञान को ऊह कहते हैं । ऊह शब्द तर्क शब्द का पयार्यवाची है । साध्य और साधन में अविनाभाव का नाम व्याप्ति है । अविनाभाव का अर्थ है-साध्य के बिना साधन का नहीं होना । व्याप्ति का ज्ञान साध्य और साधन के उपलंभ और अनपलंभ के द्वारा होता है । साध्य के होने पर ही साधन का होना उपलंभ है और साध्य के अभाव में साधन का न होना अनुपलंभ है । उपलंभ और अनुपलंभ का तात्पर्य दर्शन और अदर्शन से नहीं है, किन्तु निश्चय और अनिश्चय से है । इस कारण अतीन्द्रिय साध्य-साधन में अविनाभाव का निश्चय और अनिश्चय आगम तथा अनुमान से होने में कोई
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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