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________________ तृतीय परिच्छेद : सूत्र ९-१० १०३ अन्वय - व्यतिरेक से उत्पन्न होता है तो प्रथम बार में देवदत्त का दर्शन होने पर इसको उत्पन्न हो जाना चाहिए । किन्तु ऐसा होता नहीं है । ऐसा मानना भी गलत है कि स्मृति की सहायता से इन्द्रियाँ प्रत्यभिज्ञान को उत्पन्न करती I हैं । क्योंकि प्रत्यक्ष स्मृतिनिरपेक्ष होता है । यदि इसे स्मृतिसापेक्ष माना जाय तो इसके द्वारा अपूर्व अर्थ का साक्षात्कार कैसे होगा ? मीमांसक तो पूर्व अर्थ के ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं । यहाँ यह भी विचारणीय है कि वर्तमान अर्थ ही इन्द्रियों से सम्बद्ध होता है । प्रत्यभिज्ञान का विषय वर्तमान अर्थ नहीं है, किन्तु पूर्वोत्तरपर्यायवर्ती एकत्वादि इसका विषय है । प्रत्यभिज्ञान में किसी व्यवधान के बिना प्रतिभासन लक्षण वैशद्य भी नहीं पाया जाता है । इस ज्ञान में पूर्व पर्याय के स्मरण का और उत्तर पर्याय के दर्शन का व्यवधान पाया जाता है । इसलिए प्रत्यभिज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं माना जा सकता है । इस प्रकार अविशद होने के कारण प्रत्यभिज्ञान को परोक्ष मानना ही युक्तिसंगत है ।' बौद्धपक्ष 1 यहाँ बौद्धों का कथन है कि प्रत्यभिज्ञान एक ज्ञान नहीं है, किन्तु दो ज्ञान हैं ।' स:' ( वह ) ऐसा उल्लेख स्मरणरूप है और 'अयम्' ( यह ) • ऐसा उल्लेख प्रत्यक्षरूप है । इनसे व्यतिरिक्त अन्य कोई ज्ञान नहीं है जिसे प्रत्यभिज्ञान कहा जाय । इन दोनों ज्ञानों में ऐक्य भी नहीं माना जा सकता है । अन्यथा प्रत्यक्ष और अनुमान में भी ऐक्य मानना पड़ेगा । अतः प्रत्यभिज्ञान एक ज्ञान न होकर दो ज्ञान हैं । उत्तरपक्ष बौद्धों का उक्त कथन युक्तिसंगत नहीं है । क्योंकि स्मरण और प्रत्यक्ष से उत्पन्न होने वाला तथा पूर्वोत्तरपर्यायवर्ती एक द्रव्य को विषय करने वाला जो संकलनात्मक एक ज्ञान होता है वही प्रत्यभिज्ञान है और यह स्मरण तथा प्रत्यक्ष दोनों से भिन्न है । स्मरण अतीत और वर्तमान पर्यायवर्ती द्रव्य का संकलन नहीं कर सकता है, वह तो मात्र अतीत पर्याय को विषय करता है । इसी प्रकार प्रत्यक्ष भी केवल वर्तमान पर्याय को विषय करता है, वह अतीत पर्याय को विषय नहीं कर सकता है । तब दोनों पर्यायों में रहने वाले एक द्रव्य को विषय करने वाला कोई पृथक् ज्ञान
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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