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तृतीय परिच्छेद : सूत्र ५-८
१०१ प्रत्यभिज्ञान के कारण दो हैं-दर्शन ( प्रत्यक्ष ) और स्मरण । उसका आकार इस प्रकार होता है-यह वही है, यह उसके सदृश है, यह उससे विलक्षण है, और यह उसका प्रतियोगी है । इत्यादि प्रकार से प्रत्यभिज्ञान के कई भेद होते हैं । यह वही है, यह एकत्वप्रत्यभिज्ञान है । यह उसके सदृश है, यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है । यह उससे विलक्षण है, यह वैलक्षण्य प्रत्यभिज्ञान है । यह उसका प्रतियोगी है, यह प्रातियोगिक प्रत्यभिज्ञान है । एकत्व प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण बतलाते हैं
___ यथा स एवायं देवदत्तः ॥६॥
जैसे यह वही देवदत्त है । इसका तात्पर्य यह है कि एक वर्ष पहले जिस देवदत्त को देखा था आज वही देवदत्त पुनः दिख गया । तब उसमें ऐसा ज्ञान होता है कि यह वही देवदत्त है जिसको पहले देखा था । यहाँ देवदत्त की पूर्व में दृष्ट पर्याय का स्मरण होता है और वर्तमान पर्याय का प्रत्यक्ष होता है । तब दोनों पर्यायों का संकलनरूप एकत्व प्रत्यभिज्ञान होता है कि दोनों पर्यायों में रहनेवाला देवदत्त एक ही है, भिन्न भिन्न नहीं । यही एकत्व प्रत्यभिज्ञान है। सादृश्य प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण बतलाते हैं
गोसदृशो गवयः ॥७॥ जैसे गवय गाय के सदृश होता है । हम प्रतिदिन गाय को देखते हैं, किन्तु वन्य प्राणी गवय को हमने आज तक नहीं देखा । परन्तु गवय गाय के सदृश होता है, ऐसा हमने सुना है । तदनन्तर कभी वन में जाने पर गाय के सदृश प्राणी को देख कर हम जान लेते हैं कि यह गवय है । गौ और गवयः ( नील गाय ) में सादृश्य होने के कारण उत्पन्न होने वाला यह ज्ञान सादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । वैलक्षण्य प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण बतलाते हैं
गोविलक्षणो महिषः ॥८॥ जैसे महिष ( भैंस ) गाय से विलक्षण है । हम प्रतिदिन गाय और भैंस दोनों को देखकर यह जान लेते हैं कि इन दोनों में समानता न होकर वैलक्षण्य पाया जाता है । यही वैलक्षण्य प्रत्यभिज्ञान है ।
प्रातियोगिक प्रत्यभिज्ञान का उदाहरण बतलाते हैं