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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन .
अनेक प्राणियों की रक्षा के लिए विहार ( गमन ) का त्याग भी करना चाहिए । यह भी देखिए कि वस्त्र के ग्रहण करने में याचन, सीवन ( सिलना ) प्रक्षालन, शोषण ( सुखाना ) चौरहरण, ( चोरी ) आदि कितनी ही बातें मन में संक्षोभ को उत्पन्न करने वाली होती हैं । ऐसी स्थिति में आर्यिकाओं में बाह्याभ्यन्तर परिग्रह के त्यागरूप संयम कैसे बनेगा ? वस्त्रग्रहण तो संयम का उपघातक ही होता है । • यहाँ कोई वादी शंका कर सकता है कि जन्तु रक्षा के लिए पीछी का धारण करना, रोग की निवृत्ति के लिए औषधि का ग्रहण करना आदि क्रियाओं में भी दोष होता ही है । तब वस्त्र की तरह इनका निषेध क्यों नहीं किया गया है ? इसका उत्तर यह है कि कोमल पीछी के ग्रहण से सूक्ष्म जन्तुओं का उपघात न होकर उनकी रक्षा होती है । पीछी का ग्रहण शरीर में मूर्छा का सूचक भी नहीं है । इसी प्रकार रोग दूर करने में समर्थ औषधि के लेने से रोग दूर होता है, चर्या में कोई बाधा नहीं आती है तथा औषधि नैर्ग्रन्थ्य अवस्था की विरोधी भी नहीं है । जैनसिद्धान्त के अनुसार उद्गमादि. ४६ दोष रहित आहार, औषधि आदि का ग्रहण रत्नत्रय की आराधना का हेतु होता है। __साधु में पीछी, औषधि आदि के ग्रहण से रागादि अन्तरंग और वेशभूषादि बहिरंग परिग्रह का सद्भाव नहीं माना जा सकता है । पीछी, औषधि आदि तो मोक्ष के हेतुभूत संयम के उपकारक ही होते हैं । अवसर आने पर परम नैर्ग्रन्थ्य की सिद्धि के लिए पीछी तथा औषधि का भी त्याग कर दिया जाता है । दो दिन, तीन दिन आदि के क्रम से मुमुक्षुओं के द्वारा पिण्ड ( आहार ) का भी त्याग कर दिया जाता है । परन्तु आर्यिकाओं के द्वारा वस्त्र का त्याग तो जीवन पर्यन्त कभी भी नहीं किया जाता है । इस प्रकार स्त्रियों में मोक्ष के हेतुभूत संयम का अभाव सिद्ध होता है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि स्त्रियों में मोक्ष के अविकल कारण नहीं पाये जाते हैं । अतः पूर्वोक्त अनुमान प्रमाण स्त्रीमुक्ति का साधक नहीं हो सकता है ।
आगम प्रमाण से भी स्त्रीमुक्ति की सिद्धि नहीं होती है । ऐसा कोई आगम ही नहीं है जो स्त्रीमुक्ति को सिद्ध करता हो । निम्नलिखित आगम से भी स्त्रीमुक्ति की सिद्धि नहीं होती है