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द्वितीय परिच्छेद: सूत्र ११
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मोक्ष का हेतु संयम भी स्त्रियों में असंभव ही है । जब उनका संयम सांसारिक ऋद्धियों का भी हेतु नहीं है तब वह सम्पूर्ण कर्मों के विप्रमोक्षरूप मोक्ष का हेतु कैसे हो सकता है ? सचेल संयम होने के कारण भी गृहस्थ
संयम की तरह स्त्री का संयम मोक्ष का हेतु नहीं है । स्त्रियों का निर्वस्त्र संयम न तो देखा गया है और न आगम में बतलाया गया है । ऐसा भी नहीं है कि पुरुषों का अचेल संयम और स्त्रियों का सचेल संयम दोनों ही मोक्ष के हेतु होते हैं । ऐसा मानने पर कारण के भेद से मुक्ति में भी भेद मानना पड़ेगा । सचेल संयम को मुक्ति का हेतु मानने पर पंचम गुणस्थानवर्ती देशसंयमियों को भी मुक्ति का प्रसंग प्राप्त होगा ।
आर्यिकाएं साधुओं के द्वारा वन्दनीय न होने के कारण भी मोक्ष के हेतुभूत संयम वाली नहीं हैं । साधु आर्यिका की वन्दना नहीं करते हैं किन्तु आर्यिकाएं ही साधु की वन्दना करती हैं । इस विषय में आगम में बतलाया गया है
वरससयदिक्खियाए अज्जाये अज्ज दिक्खिओ साहू | अभिगमणवंदणणमंसणविणएण सो पुजो ॥
- उपदेशमाला गाथा १५ ( धर्मदासगणि)
'अर्थात् सौ वर्ष से दीक्षित आर्यिका के द्वारा आज दीक्षित साधु अभिगमन, वन्दन, नमस्करण और विनय से पूज्य होता है ।
बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह युक्त होने के कारण भी स्त्रियाँ मोक्ष के हेतुभूत संयम वाली नहीं हैं । वस्त्रग्रहणरूप बाह्य परिग्रह स्वशरीर में अनुरागादिरूप अन्तरंग परिग्रह का अनुमान कराता है । ऐसा भी नहीं है कि शरीर की गर्मी से होने वाली वायुकायिक आदि जीवों की हिंसा के निवारण के लिए आर्यिका वस्त्रधारण करती हो । यदि ऐसा है तो पुरुषों का अचेलकरूपव्रत हिंसा कहलायेगा । तब तो अर्हन्त आदि मुक्ति के पात्र नहीं हो सकेंगे । इसके विपरीत सवस्त्र गृहस्थ ही मुक्ति के पात्र होंगे । आर्यिका के द्वारा वस्त्र के ग्रहण करने पर भी वस्त्र से अनावृत पाणि, पाद आदि की गर्मी से जन्तुओं की हिंसा का निवारण कैसे होगा ? यहाँ यह भी स्मरणीय है कि वस्त्र अनेक सूक्ष्म जन्तुओं का अधिकरण (आधार) होता है । यदि जन्तुओं की रक्षा के लिए वस्त्रग्रहण उचित माना जावे तो