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द्वितीय परिच्छेद: सूत्र ११, १२
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पुंवेदं वेदंता. जे पुरिसा खवगसेढिमारूढा । सेसोदयेण वि तहा झाणुवजुत्ता य ते दु सिज्झति ॥ – प्राकृतसिद्धभक्ति ( आचार्य कुन्दकुन्द ) अर्थात् पुरुषवेद का अनुभव करने वाले जो पुरुष क्षपक श्रेणी में आरूढ हैं और ध्यान में लीन हैं वे सिद्ध हो जाते हैं । तथा शेष स्त्रीवेद और नपुंसकवेद वाले भी इस प्रकार मोक्ष जाते हैं । आगम की उक्त गाथा से भी स्त्रीमुक्त की सिद्धि नहीं होती है ।
उक्त गाथा का विशेषार्थ इस प्रकार है
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पुरुषवेद के समान अन्यवेदों का उदय होने पर भी पुरुष ही मोक्ष जाते हैं । उदय भाव का होता है, द्रव्य का नहीं । मोहनीय कर्म के उदय से भाववेद होता है और नाम कर्म के उदय से द्रव्यवेद होता है । द्रव्यवेद नाम कर्म का कार्य हैं और भाववेद - मोहनीय कर्म का कार्य है । अतः जो बाह्य में पुरुषरूप द्रव्यवेद वाले हैं और अन्तरंग में स्त्रीवेद या नपुंसकवेद का अनुभव कर रहे हैं ऐसे पुरुष ही मोक्ष जाने के पात्र होते हैं । जो बाह्य में द्रव्य स्त्री और द्रव्य नपुंसक हैं वे मोक्ष नहीं जा सकते हैं । जहाँ भी ऐसा कथन है कि स्त्रीवेद के उदय वाले जीव मोक्ष जाते हैं वहाँ मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला भाववेद ही विवक्षित है द्रव्यवेद नहीं । तात्पर्य यह है कि स्त्री के शरीर को धारण करनेवाली द्रव्य स्त्री कभी भी मोक्ष नहीं जा सकती है ।
आगम में यह भी बतलाया गया है कि रत्नत्रय के आराधक जीव की जघन्य से सात-आठ भवों में और उत्कर्ष से दो-तीन भवों में मुक्ति हो जाती है । जबसे यह जीव रत्नत्रय का आराधक हो जाता है तब से सब प्रकार की स्त्रियों में उसकी उत्पत्ति होती ही नहीं है । तब स्त्रीमुक्ति का प्रश्न कहाँ शेष रहता है ? मोक्ष तो उत्कृष्ट ध्यान का फल है और स्त्रियों में उत्कृष्ट ध्यान संभव न होने के कारण उनका मोक्ष प्राप्त करना असंभव है । अन्त में हम यही कहेंगे कि स्त्रियों को मोक्ष नहीं होता है, क्योंकि वे पुरुष से भिन्न हैं, जैसे कि नपुंसक । अतः सप्रमाण यह सिद्ध होता है कि स्त्रियाँ मोक्ष प्राप्त करने की अधिकारिणी नहीं है ।
ज्ञान को सावरण और इन्द्रियजन्य मानने में क्या हानि है ? इस बात को बतलाने के लिए सूत्र कहते हैं