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द्वितीय परिच्छेद: सूत्र ११
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रक्षा के लिए । शरीर के उपचय के लिए कवलाहार मानना ठीक नहीं है । क्योंकि लाभान्तराय के क्षय से उनको प्रतिसमय विशिष्ट परमाणुओं का लाभ होता ही रहता है और इससे शरीर का उपचय बना रहता है । ज्ञानादि की सिद्धि के लिए केवली को आहार करने की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि उनमें सकलार्थविषयक केवलज्ञान और यथाख्यातचारित्र सर्वदा विद्यमान रहता है । तथा निर्मनस्क होने से उनमें ध्यान होता ही नहीं है । क्षुधा की वेदना के प्रतिकार के लिए केवली में आहार मानना भी ठीक नहीं है । क्योंकि अनन्तसुखसम्पन्न केवली में क्षुधा की वेदना होती ही नहीं है । प्राणों की रक्षा के लिए केवली में आहार की कल्पना करना निरर्थक है । क्योंकि चरम शरीर होने के कारण उनकी अकालमृत्यु होती ही नहीं है ।
यहाँ ऐसी आशंका व्यर्थ है कि केवली में भोजन का अभाव मानने पर 'एकादश जिने परीषहा: ' इस आगम वाक्य का विरोध प्राप्त होगा । क्योंकि जिन ( केवली ) में क्षुधा आदि जो ग्यारह परीषह बतलायी गई हैं वे उपचारमात्र से हैं और उपचार का कारण है वेदनीय कर्म का सद्भाव । यदि परमार्थ से केबली में क्षुधादि परीषहों का सद्भाव हो तो बुभुक्षा की तरह रोग, वध, तृणस्पर्श आदि परीषहों का सद्भाव भी उनमें मानना पड़ेगा । तथा इन परीषहों द्वारा उत्पन्न पीड़ा के कारण उनको बड़ा भारी दुःख प्राप्त होगा । तब दुःखी होने से वे हम लोगों की तरह 'जिन' नहीं हो सकते हैं । अतः हम कह सकते हैं कि केवली भगवान् अनन्तचतुष्टय से सम्पन्न होने के कारण क्षुधादि परीषह से रहित होते हैं ।
आप लोग कहते हैं कि भोजन करते समय भगवान् अदृश्य रहते हैं । यदि ऐसा है तो उनके अदृश्य रहने का कारण क्या है ? क्या वे अयुक्तसेवी होने के कारण एकान्त में भोजन करते हैं अथवा विद्याविशेष के द्वारा अपना तिरोधान कर लेते हैं । प्रथम पक्ष में परस्त्री के प्रति गमन करने वाले पुरुष की तरह केवली को अयुक्तसेवी होने का दोष आता है । यदि केवली अपने तिरोधान के लिए विद्याविशेष का उपयोग करते हैं तो वे निर्ग्रन्थ नहीं रह सकते हैं। क्योंकि निर्ग्रन्थ ऐसा काम नहीं करते हैं । यदि केवली भोजन करते समय अदृश्य रहते हैं तो श्रावक उनको आहार दान कैसे देंगे ? इत्यादि प्रकार से विचार करने पर केवली में कवलाहार सिद्ध नहीं