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प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन ..... हो सकती है । तात्पर्य यह है कि मोहनीय कर्म के अभाव में केवली में बुभुक्षा होती ही नहीं है।
थोड़ी देर के लिए हम मान लेते हैं कि वेदनीय कर्म केवली में बुभुक्षारूप फल को देता है और इसके फलस्वरूप केवली भोजन करते हैं । तब प्रश्न उपस्थित होता है कि केवली समवसरण में स्थित रहकर भोजन करते हैं अथवा चर्यामार्ग से जाकर भोजन करते हैं । प्रथम पक्ष मानने पर केवली धर्म के मार्ग को नष्ट करने वाले कहलायेंगे । क्योंकि साधारण गृहस्थ भी धर्मायतन में भोजन नहीं करते हैं तो केवली भगवान् समवसरण में भोजन कैसे करेंगे ? द्वितीय पक्ष यह है कि वे चर्यामार्ग से जाकर भोजन करते हैं । यहाँ भी दो विकल्प होते हैं । क्या वे घर घर में भिक्षा के लिए जाते हैं अथवा एक ही घर में भिक्षालाभ जानकर प्रवृत्ति करते हैं । प्रथम विकल्प मानने पर घर घर घूमने वाले जिन अज्ञानी कहलायेंगे । क्योंकि उनको इतना भी ज्ञान नहीं है कि भिक्षा का लाभ कहाँ होगा । और द्वितीय विकल्प स्वीकार करने पर केवली में भिक्षा की शुद्धि नहीं बनती है । क्योंकि सबसे अच्छा भोजन कहाँ मिलेगा ऐसा जानकर वे उसी घर में चले जायेंगे । यहाँ यह भी विचारणीय है कि केवली भगवान् भोजन करते समय मांस, विष्ठा ( टट्टी ) आदि अशुचि पदार्थों का साक्षात्कार करते हुए आहार को कैसे ग्रहण करेंगे । यह भी जानने योग्य बात है कि केवली भोजन करते समय एकाकी भोजन करते हैं अथवा शिष्यों से परिवृत्त ( घिरे हुए ) होकर भोजन करते हैं । प्रथम पक्ष में यह दोष है कि शिष्यों को छोड़कर श्रावकों के घर में अकेले जाकर भोजन करने से वे दीन कहलायेंगे । और शिष्यों से परिवृत्त होकर भोजन करने में उन्हें सावध ( सदोष ) होने का प्रसंग आता है । एक प्रश्न यह भी है कि केवली भोजन करके प्रतिक्रमणादि करते हैं या नहीं । यदि वे प्रतिक्रमण करते हैं तो दोषवान् सिद्ध होते हैं । और प्रतिक्रमण न करने पर भोजन क्रिया से उत्पन्न दोष का निवारण कैसे होगा ?
अच्छा अब आप यह बतलाइये कि केवली भोजन किसलिए करते हैं । (१) शरीर के उपचय के लिए (२) ज्ञान, ध्यान और संयम की सिद्धि के लिए (३) क्षुधा की वेदना के प्रतिकार के लिए अथवा (४) प्राणों की